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सूरा-अल-यूनुस | Surah 10

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सूरा-अल-यूनुस

| मक्का कालीन | आयत 109| 

यूनुस (अ)

सूरा-अल-यूनुस | Surah 10

अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहरबान, रहम करने वाला है।

अलिफ-लााम-राा, यह हिक्मत वाली किताब की आयतें हैं। (1) 

क्या लोगों को तअजजुब हुआ? कि हम ने वहि भेजी एक आदमी पर उन में से कि वह लोगों को डराए, और ईमान वालों को खुशखबरी दे कि उन के लिए सच्चा पाया (मकाम) है उन के रब के पास| काफिर बोले बेशक यह तो खुला जादूगर है। (2) 

बेशक तुम्हारा रब अल्लाह है, जिस ने पैदा किया छः (6) दिनों में आस्मानों को और ज़मीन को, फिर वह अर्श पर काइम हुआ, काम की तदबीर करता है, कोई सिफारिश करने वाला नहीं मगर उस की इजाजत के बाद, वह अल्लाह है तुम्हारा रब, पर उस की बन्दगी करो, सो क्या तुम धयान नहीं देते? (3) 

उस की तरफ़ तुम सब को लौट कर जाना है, अल्लाह का वादा सच्चा है, बेशक वही पहली बार पैदा करता है फिर उस को दोबारा पैदा करेगा, ताकि उन लोगों को इन्साफ़ के साथ जज़ा दे जो ईमान लाए और उन्हों ने नेक अमल किए, और जिन लोगों ने कुफ़ किया उन के लिए खौलता हुआ पानी है और दर्दनाक अज़ाब है, क्योंकि वह कुफ़ करते थे(4) 

वही है जिस ने सूरज को जगमगाता और चाँद को चमकता बनाया और उस की मन्जिलें मुकर्रर कर दी ताकि तुम बरसों की गिनती जान लो और हिसाब, अल्लाह ने यह नहीं पैदा किया मगर दुरुस्त तदबीर से, वह इल्म वालों के लिए निशानियां खोल कर बयान करता है। (5) 

बेशक रात और दिन के बदलने में, और जो अल्लाह ने आस्मानों में और जमीन में पैदा किया (उस में) निशानियां है परहेज़गारों के लिए| (6) 

बेशक जो लोग हमारे मिलने की उम्मीद नहीं रखते, और वह दुनिया की जिन्दगी पर राजी हो गए और उस पर मुत्मइन हो गए, और जो लोग हमारी आयतों से गाफ़िल हैं, (7) 

यही लोग हैं जिन का ठिकाना जहन्नम है, उस का बदला जो वह कमाते थे। (8) 

बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने नेक अमल किए, उन का रब उन्हें राह दिखाएगा उन के ईमान की बदौलत (ऐसे महलात की) जिन के नीचे नहरें बहती होंगी, नेमत के बागात में। (9) 

उस में उन की दुआ (हो गी) ऐ अल्लाह! तू पाक है, और उस में उन की वक्ते मुलाकात की दुआ "सलाम” है, और उन की दुआ का खातिमा है तमाम तारीफें अल्लाह के लिए हैं जो सारे जहानों का रब है। (10)

और अगर अल्लाह लोगों को जल्द बुराई भेजता जैसे वह जलद भलाई चाहते हैं तो पूरी हो चुकी होती उन की उम्र की मीआद, पर हम उन लोगों को जो हमारी मुलाकात की उम्मीद नहीं रखते सरकशी में बहकते छोड़ देते हैं। (11)

और जब इन्सान को कोई तकलीफ़ पहुंचती है तो वह लेटा हुआ, और बैठा हुआ, और खड़ा हुआ हमें पुकारता है, फिर जब हम दूर कर दें उस से उस की तकलीफ़, (यूँ चल पड़ा गोया कि किसी तकलीफ़ में जो उसे पहुंची, उस ने हमें पुकारा ही न था, उसी तरह हद से बढ़ने वालों को भला कर दिखाया वह काम जो वह करते थे। (12) 

और हम ने तुम से पहले कई उम्मतें हलाक कर दी जब उन्हों ने जुल्म किया, और उन के पास आए उन के रसूल खुली निशानियों के साथ, और वह ईमान न लाते थे, उसी तरह हम मुड्रिमों की कौम को बदला देते हैं। (13) 

फिर हम ने तुम्हें ज़मीन में उन के बाद जानशीन बनाया ताकि हम देखें तुम कैसे काम करते हो। (14)

और जब पढ़ी जाती हैं उन के सामने हमारी वाजेह आयतें, तो जो लोग हम से मिलने की उम्मीद नहीं रखते वह कहते हैं, उस के अलावा तुम कोई और कुरआन ले आओ या उसे बदल दो, आप (स) कह दें मेरे लिए (रवा) नहीं कि मैं अपनी जानिब से बदलें, मैं पैरवी नहीं करता मगर (उस की) जो मेरी तरफ़ वहि किया जाता है, अगर मैं अपने रब की नाफरमानी करूँ तो मैं बड़े दिन के अज़ाब से डरता हूँ। (15) 

आप (स) कह दें अगर अल्लाह चाहता तो मैं उसे तुम पर (तुम्हारे सामने) न पढ़ता, और न तुम्हें उस की खबर देता, मैं उस से पहले तुम में एक उस रह चुका हूँ, सो क्या तुम अक्ल से काम नहीं लेते? (16) 

सो उस से बड़ा ज़ालिम कौन है? जो अल्लाह पर झूट बान्धे या उस की आयतों को झुटलाए, बेशक मुजरिम फलाह (दो जहान की कामयाबी) नहीं पाते, (17) 

और वह अल्लाह के सिवा उन्हें पूजते हैं जो उन्हें न ज़रर पहुंचा सकें और न नफा दे सकें, और वह कहते हैं यह सब अल्लाह के पास हमारे सिफारशी हैं। आप (स) कह दें क्या तुम अल्लाह को उस की खबर देते हो जो वह नहीं जानता आस्मानों में और न जमीन में, वह पाक है और वह बालातर है उस से जो वह शिर्क करते हैं। (18) 

और लोग न थे मगर उम्मते वाहिद, फिर उन्हों ने इत्तिलाफ़ किया, और अगर तेरे रब की तरफ से पहले बात न हो चुकी होती तो फैसला हो जाता उन के दरमियान (उस बात का) जिस में वह इख़तिलाफ़ करते हैं। (19)

और वह कहते हैं उस के रब की तरफ़ से उस पर कोई निशानी क्यों न उतरी? तो आप (स) कह दें उस के सिवा नहीं कि गैब अल्लाह के लिए है, सो तुम इनतिज़ार करो, मैं (भी) तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करने वालों से हूँ। (20) 

और जब हम चखाएं लोगों को रहमत (का मज़ा) एक तकलीफ़ के बाद जो उन्हें पहुंची थी तो उसी वक्त वह हमारी आयात में हीले (बनाने लगें) आप (स) कह दें अल्लाह सब से तेज खुफिया तदबीर (बना सकता है), बेशक तुम जो हीले साजी करते हो हमारे फरिश्ते लिखते हैं। (21) 

वही है जो तुम्हें चलाता है खुश्की में और दर्या में, यहां तक कि जब तुम कश्ती में हो, और वह उन के साथ (उन्हें ले कर) पाकीजा हवा के साथ चलें, और वह उस से खुश हुए, उस (कश्ती) पर एक तुन्द ओ तेज़ हवा आई, और उन पर हर तरफ़ से मौजें आगई, और उन्हों ने जान लिया कि उन्हें घेर लिया गया है, वह अल्लाह को पुकारने लगे उस की बन्दगी में खालिस हो कर, कि अगर तू ने हमें इस से नजात दे दी तो हम ज़रूर तेरे शुक्रगुज़ारों में से होंगे। (22) 

फिर जब उस ने उन्हें नजात दे दी उस वक्त वह जमीन में नाहक सरकशी करने लगे, ऐ लोगो! इस के सिवा नहीं कि तुम्हारी शरारत (का वबाल) तुम्हारी जानों पर है, दुनिया की जिन्दगी के फाइदे (चन्द रोज़ा है, फिर तुम्हें हमारी तरफ़ लौटना है फिर हम तुम्हें बतला देंगे जो तुम करते थे। (23) 

इस के सिवा नहीं कि दुनिया की ज़िन्दगी की मिसाल पानी जैसी है, हम ने उसे आस्मान से उतारा तो उस से जमीन का सब्जह मिला जुला निकला, जिस से लोग और चौपाए खाते हैं, यहां तक कि जब जमीन ने अपनी रौनक पकड़ ली, और वह मुजैयन हो गई, और जमीन वालों ने खयाल किया कि वह उस पर कुदरत रखते हैं तो (अचानक) हमारा हुक्म रात में। या दिन के वक्त आया, तो हम ने उसे कटा हुआ ढेर कर दिया गोया वह कल थी ही नहीं, इसी तरह हम आयतें खोल कर बयान करते हैं उन लोगों के लिए जो गौर ओ फ़िक्र करते हैं। (24)

और अल्लाह सलामती के घर की तरफ़ बुलाता है। और जिसे चाहे सीधे रास्ते की तरफ़ हिदायत देता है। (25) 

जिन लोगों ने भलाई की उन के लिए भलाई है और (उस से भी) ज़ियादा, और उन के चहरों पर न सियाही चढ़ेगी और न जिल्लत, वही लोग जन्नत वाले हैं, वह उस में हमेशा रहेंगे। (26) 

और जिन लोगों ने बुराइयां कमाई (उन का) बदला उस जैसी बुराई है, और उन पर जिल्लत चढ़ेगी, उन के लिए अल्लाह से बचाने वाला कोई नहीं, गोया उन के चहरे ढांक दिए गए तारीक रात के टुकड़े से, वही लोग जहन्नम वाले हैं, वह उस में हमेशा रहेंगे| (27)

और जिस दिन हम उन सब को इकटठा करेंगे फिर उन लोगों को कहेंगे जिन्हों ने शिर्क किया अपनी अपनी जगह (रहो) तुम और तुम्हारे शरीक, फिर हम उन के दरमियान जुदाई डाल देंगे, और उन के शरीक कहेंगे, तुम हमारी बन्दगी न करते थे। (28) 

पर हमारे और तुम्हारे दरमियान काफ़ी है अल्लाह गवाह, कि हम तुम्हारी बन्दगी से बेखबर थे। (29) 

वहां हर कोई जांच लेगा जो उस ने आगे भेजा था और वह अपने सच्चे मौला अल्लाह की तरफ़ लौटाए जाएंगे और उन से गुम हो जाएगा जो वह झूट बान्धते थे। (30) 

आप (स) पूछे कौन आस्मान और जमीन से तुम्हें रिजुक देता है? या कौन कान और आँखों का मालिक है? और कौन ज़िन्दा को मुर्दे से निकालता है? और निकालता है मुर्दे को ज़िन्दा से? और कौन कामों की तदबीर करता है? सो वह बोल उठेंगे, अल्लाह! आप (स) कहदें क्या फिर तुम डरते नहीं? (31) 

पर यह है अल्लाह! तुम्हारा सच्चा रब, सच के बाद गुमराही के सिवा क्या रह गया? फिर तुम किधर फिरे जाते हो? (32) 

उसी तरह तेरे रब की बात उन लोगों पर जिन्हों ने नाफरमानी की, सच्ची हुई कि वह ईमान न लाएंगे, (33)

आप (स) पूछे क्या तुम्हारे शरीकों में से कोई है? जो पहली बार पैदा करे फिर उसे लौटाए, आप(स) कह दें अल्लाह पहली बार पैदा करता है फिर उसे लौटाएगा, पर तुम किधर पलटे जाते हो? (34) 

आप (स) पूछे क्या तुम्हारे शरीकों में से (कोई है जो सहीह राह बताए? आप (स) कह दें अल्लाह सहीह राह बताता है, क्या जो सहीह राह बताता है ज़ियादा हक़दार है कि उस की पैरवी की जाए? या वह जो (खुद भी) राह नहीं पाता मगर यह कि उसे राह दिखाई जाए, सो तुम्हें क्या हो गया है? कैसा फैसला करते हो? (35) 

और उन में से अक्सर पैरवी नहीं करते मगर गुमान की, बेशक गुमान हक (की मुआरिफ़त) का कुछ भी काम नहीं देता, बेशक अल्लाह खूब जानता है जो वह करते हैं। (36)

और यह कुरआन (ऐसा) नहीं कि कोई अल्लाह के (हुक्म के) बगैर (अपनी तरफ़ से) बना ले, लेकिन उस की तस्दीक करने वाला है जो उस से पहले (नाज़िल हुआ) और किताब की तफ़सील है, उस में कोई शक नहीं कि यह तमाम जहानों के रब (की तरफ़) से है। (37) 

क्या वह कहते हैं? कि वह उसे बना लाया है, आप (स) कह दें पर उस जैसी एक ही सूरत ले आओ और जिसे तुम बुला सको, बुला लो, अल्लाह के सिवा, अगर तुम सच्चे हो। (38) 

बल्कि उन्हों ने उसे झुटलाया जिस के इल्म पर उन्हों ने काबू नहीं पाया, और उस की हक़ीक़त अभी उन के पास नहीं आई, उसी तरह उन से पहलों ने झुटलाया, पर आप (स) देखें कैसा हुआ ज़ालिमों का अन्जाम? (39) 

और उन में से बाज़ उस पर ईमान लाएंगे, और उन में से बाज़ उस पर ईमान न लाएंगे, और तैरा रख फ़साद करने वालों को खूब जानता है। (40) 

और अगर वह आप (स) को झुटलाएं तो आप (स) कह दें मेरे लिए मेरे अमल, और तुम्हारे लिए तुम्हारे अमल, तुम उस के जवाबदह नहीं जो में करता हूँ, और मैं उस का जवाबदह नहीं जो तुम करते हो। (41)

और उन में से बाज़ कान लगाते हैं आप (स) की तरफ़, तो क्या तुम बहरों को सुनाओगे? अगरचे वह अक्ल न रखते हों। (42) 

और उन में से बाज़ देखते हैं आप(स) की तरफ़, तो क्या आप(स) अन्धों को राह दिखा देंगे? अगरचे वह देखते न हों। (43) 

बेशक अल्लाह जुल्म नहीं करता लोगों पर कुछ भी, लेकिन लोग अपने आप पर जुल्म करते हैं। (44) 

और जिस दिन (योमे हर) वह उन्हें जमा करेगा गोया वह (दुनिया में) न रहे थे मगर दिन की एक घड़ी, आपस में पहचानेंगे, अलबत्ता वह खसारे में रहे जिन्हों ने झुटलाया अल्लाह से मिलने को, और वह हिदायत पाने वाले न थे। (45)

और अगर हम तुम्हें बाज़ वादे दिखा दें जो हम उन से कर रहे हैं या हम तुम्हें (दुनिया से) उठा लें, पर उन्हें हमारी तरफ़ लौटना है, फिर अल्लाह उस पर गवाह है जो वह करते हैं। (46) 

हर एक उम्मत के लिए एक रसूल है, पर जब उन का रसूल आगया, उन के दरमियान इन्साफ के साथ फैसला कर दिया गया, और उन पर जुल्म नहीं किया जाता। (47) 

और वह कहते हैं यह वादा कब (पूरा) होगा? अगर तुम सच्चे हो। (48) 

आप (स) कह दें मैं अपनी जान के लिए मालिक नहीं हूँ किसी नुक्सान का न नफा का, मगर जो अल्लाह चाहे, हर एक उम्मत के लिए एक वक्त मुकर्रर है, जब उन का वक्त आजाएगा पर न वह एक घड़ी ताखीर करेंगे न जल्दी कर सकेंगे। (49) 

आप (स) कह दें भला तुम देखो अगर तुम पर उस का अजाब आए रात को या दिन के वक्त, तो वह क्या है जिस की मुजिम जल्दी कर रहे हैं? (50) 

क्या फिर जब वाके हो जाएगा (उस वक्त) तुम उस पर ईमान लाओगे? अब (मानते हो) अलबत्ता तुम उस की जल्दी मचाते थे। (51) 

फिर जालिमों को कहा जाएगा तुम हमेशगी का अजाब चखो, तुम्हें वही बदला दिया जाता है जो तुम कमाते थे। (52) 

और आप (स) से पूछते हैं क्या वह सच है? आप (स) कहदें हां। मेरे रब की कसम! बेशक वह ज़रूर सच है, और तुम आजिज़ करने वाले नहीं। (53)

और अगर हर जालिम शख्स के लिए (वह सब कुछ) हो जो जमीन में । है, वह उस को फ़िदये में देदे, और वह चुपके चुपके पशेमान होंगे जब अजाब देखेंगे, और उन के दरमियान इन्साफ़ के साथ फैसला होगा, और उन पर जुल्म न किया जाएगा। (54) 

याद रखो! अल्लाह के लिए है जो आस्मानी में और ज़मीन में है, याद रखो! बेशक अल्लाह का वादा सच है, लेकिन उन के अकसर जानते नहीं। (55) 

वही जिन्दगी देता है, और वही मारता है, और उसी की तरफ़ तुम लौटाए जाओगे| (56) 

ऐ लोगो! तहक़ीक़ तुम्हारे पास आ गई नसीहत तुम्हारे रब की तरफ से, और शिफा उस (रोग) के लिए जो दिलों में है, और मोमिनों के लिए हिदायत ओ रहमत। (57) 

आप (स) कहदें, अल्लाह के फज्ल से, और उस की रहमत से, सो वह उस पर खुशी मनाएं, यह उन (सब) से बेहतर है जो वह जमा करते हैं। (58) 

आप (स) कह दें, भला देखो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए रिजक उतारा, फिर तुम ने उस में से कुछ हराम बना लिया और कुछ हलाल, आप (स) कह दें, क्या अल्लाह ने तुम्हें हुक्म दिया? या अल्लाह पर झूट बान्धते हो? (59) 

और उन लोगों का क्या खयाल है? जो घड़ते हैं अल्लाह पर झूट, कियामत के दिन (उन का क्या हाल होगा) बेशक अल्लाह लोगों पर फज्ल करने वाला है, लेकिन उन में से अक्सर शुक्र नहीं करते। (60) 

और तुम नहीं होते किसी हाल में, और न उस में से कुछ कुरआन पढ़ते हो, और न कोई अमल करते हो, मगर हम तुम पर गवाह (बाखबर) होते हैं जब तुम उस में मशगूल होते हो, और नहीं तुम्हारे रब से गाइब एक जरी बराबर भी जमीन में और न आस्मान में, और न उस से छोटा और न बड़ा, मगर रौशन किताब में है। (61) 

याद रखो। बेशक (जो) अल्लाह के दोस्त हैं न कोई खौफ उन पर और न वह गमगीन होंगे। (62)

और जो लोग ईमान लाए और तक्वा (खौफे खुदा और परहेज़गारी) करते रहे। (63) 

उन के लिए बशारत है दुनिया की जिन्दगी में और आखिरत में, अल्लाह की बातों में कोई तबदीली नहीं, यही बड़ी कामयाबी है। (64)

और उन की बात तुम्हें गमगीन न करे | बेशक तमाम गलबा अल्लाह के लिए है, वह सुनने वाला जानने वाला है। (65) 

याद रखो! बेशक जो आस्मानों में और जमीन में है अल्लाह के लिए है, और किसी की पैरवी (नहीं) करते वह लोग जो अल्लाह के सिवा शरीकों को पुकारते हैं मगर (सिर्फ़) गुमान की पैरवी करते हैं, और वह सिर्फ अटकलें दौड़ाते हैं। (66) 

वही है जिस ने बनाई तुम्हारे लिए रात ताकि तुम उस में सुकून हासिम करो और दिन रौशन. बेशक उस में सुनने वाले लोगों के लिए निशानियां हैं। (67) 

वह कहते हैं अल्लाह ने बना लिया (अपना) बेटा| वह पाक है, वह बेनियाज है, उसी के लिए है जो कुछ आस्मानों में और जमीन में है, तुम्हारे पास नहीं है उस के लिए कोई दलील, क्या तुम अल्लाह पर वह बात कहते हो जो तुम जानते नहीं? (68) 

आप (स) कह दें, बेशक वह लोग जो अल्लाह पर झूट घड़ते हैं फलाह (दो जहान की कामयाबी) नहीं पाएंगे। (69) 

दुनिया में कुछ फाइदा है, फिर उन को हमारी तरफ़ लौटना है, फिर हम उन्हें शदीद अजाब (का मज़ा) चखाएंगे उस के बदले जो वह कुफ़ करते थे| (70)

और आप (स) उन्हें नूह (अ) का किस्सा पढ़ कर सुनाएं, जब उस ने अपनी कौम से कहा, ऐ मेरी क़ौम! अगर तुम पर गरां है मेरा कियाम और मेरा अल्लाह की आयतों से नसीहत करना, तो मैं ने अल्लाह पर भरोसा किया, पर तुम और तुम्हारे शरीक अपना काम मुकर्रर (पक्का) कर लो (ताकि) फिर तुम्हें अपने काम पर कोई शुवाह न रहे, फिर मेरे साथ कर गुजरो, और मुझे मोहलत न दो। (71) 

फिर अगर तुम मुंह फेर लो तो मैं ने तुम से कोई अजर नहीं मांगा, मेरा अजर तो सिर्फ अल्लाह पर है,

और मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं रहूँ फरमांबरदारों में से। (72) 

तो उन्हों ने उसे (नूह अ) को झुटलाया, सो हम ने बचा लिया उसे और उन्हें जो उस के साथ कश्ती में थे, और हम ने उन्हें जॉनशीन बनाया. और उन लोगों को गर्क कर दिया जिन्हों ने हमारी आयतों को झुटलाया, सो देखो (उन लोगों का) अन्जाम कैसा हुआ? जिन्हें डराया गया था। (73) 

फिर हम ने उस (नूह अ) के बाद कई रसूल उन की कौमों की तरफ भेजे तो वह उन के पास रौशन दलीलों के साथ आए, सो उन से न हुआ के वह ईमान ले आएं उस (बात) पर जिसे वह उस से कब्ल झुटला चुके थे, इसी तरह हम हद से बढ़ने वालों के दिलों पर मुहर लगाते हैं। (74) 

फिर हम ने भेजा उन के बाद मूसा (अ) और हारून (अ) को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उस के सरदारों (दरबारियों) की तरफ़, तो उन्हों ने तकब्बुर किया और वह गुनाहगार लोग थे| (75) 

तो जब उन के पास हमारी तरफ़ से हक़ पहुंचा तो वह कहने लगे, बेशक यह अलबत्ता खुला जादू है। (76) 

मूसा (अ) ने कहा, क्या तुम हक़ की निस्वत (ऐसा) कहते हो? जब वह तुम्हारे पास आगया, क्या यह जादू है? और जादूगर कामयाब नहीं होते। (77) 

वह बोले क्या तू हमारे पास (इस लिए) आया है कि हमें उस से फेर दे जिस पर हम ने अपने बाप दादा को पाया, और हो जाए तुम दोनों के लिए जमीन में बड़ाई (सरदारी मिल जाए) और हम तुम दोनों के मानने वालों में से नहीं। (78) और फ़िरऔन ने कहा मेरे पास हर इल्म वाला जादूगर ले आओ। (79) 

फिर जब जादूगर आगए तो मूसा (अ) ने उन से कहा तुम डालो, जो डालने वाले हो (तुम्हें डालना है।। (80) 

फिर उन्हों ने डाला तो मूसा (अ) ने कहा तुम जो लाए हो जादू है, बेशक अल्लाह अभी उसे बातिल करदेगा, बेशक अल्लाह फ़साद करने वालों के काम दुरुस्त नहीं करता। (81) 

और अल्लाह हक को अपने हुक्म से हक़ (साबित) कर देगा अगरचे गुनाहगार नापसन्द करें। (82) 

सो मूसा (अ) पर कोई ईमान न लाया मगर उस की कौम के चन्द लड़के खौफ की वजह से फ़िरऔन और उन के सरदारों के, कि वह उन्हें आफ़त में न डाल दे, और बेशक फ़िरऔन ज़मीन (मुल्क) में सरकश था, और बेशक वह हद से बढ़ने वालों में से था। (83) 

और मूसा (अ) ने कहा ऐ मेरी कौम! अगर तुम अल्लाह पर ईमान लाए हो तो उसी पर भरोसा करो अगर तुम फ़रमांबरदार हो। (84) 

तो उन्हों ने कहा हम ने अल्लाह पर भरोसा किया, ऐ हमारे रब! हमें न बना ज़ालिमों की कौम का तख्ता-ए-मशक़| (85) 

और हमें अपनी रहमत से काफिरों की कौम से छुड़ादे| (86) 

और हम ने मूसा (अ) और उस के भाई की तरफ वहि भेजी कि अपनी कौम के लिए मिसर में घर बनाओ और बनाओ अपने घर किव्ला रू (नमाज़ की जगह), और नमाज़ काइम करो, और मोमिनों को खुशखबरी दो| (87) 

और मूसा (अ) ने कहा ऐ हमारे रब! बेशक तू ने फ़िरऔन और उस के लशकर को दुनिया की जिन्दगी में जीनत और बहुत से माल दिए हैं, ऐ हमारे रब! कि वह तेरे रास्ते से गुमराह करें, ऐ हमारे रब! उन के माल मिटा दे, और उन के दिलों पर मुहर लगा दे कि वह ईमान न लाएं यहां तक कि दर्दनाक अज़ाब देख लें। (88) 

उस ने फ़रमाया तुम्हारी दुआ कुबूल हो चुकी है सो तुम दोनो साबित क़दम रहो, और उन लोगों की राह न चलना जो नावाकिफ हैं। (89) 

और हम ने बनी इस्राईल को पार कर दिया दर्या से, पर फ़िरऔन और उस के लशकर ने सरकशी और ज़ियादती से उन का पीछा किया, यहां तक कि जब उसको गरकाबी ने आ पकड़ा वह कहने लगा कि मैं ईमान लाया कि उस के सिवा कोई माबूद नहीं जिस पर बनी इस्राईल ईमान लाए और मैं हूँ फरमाबरदारों में से| (90) 

क्या अब? (ईमान की बात करता है) और अलबत्ता पहले तो नाफरमानी करता रहा और तू फ़साद करने वालों में से रहा। (91) 

सो आज हम तुझे तेरे बदन से बचाएंगे (गरक नहीं करेंगे) ताकि तू (तेरी लाश) उन के लिए जो तेरे बाद आएं (इबरत की) एक निशानी रहे, और बेशक लोगों में से अकसर हमारी निशानियों से गाफिल हैं। (92)

और हम ने बनी इस्राईल को । अच्छा ठिकाना दिया, और हम ने उन्हें रिजक दिया पाकीज़ा चीज़ों से, सो उन्हों ने इख्तिलाफ़ न किया यहां तक कि उन के पास इल्म आगया, बेशक तुम्हारा रब उन के दरमियान फैसला करेगा रोजे कियामत जिस (बात) में वह इखतिलाफ़ करते थे। (93) 

पर अगर तू उस (के बारे) में शक में हो तो हम ने उतारा तेरी तरफ़, तो उन लोगों से पूछ जो तुझ से पहले किताब पढ़ते हैं, तहकीक तेरे पास हक़ आगया है तुम्हारे रब की तरफ़ से, पर शक करने वालों से न होना। (94) 

और न उन लोगों से होना जिन्हों ने झुटलाया अल्लाह की आयतों को, फिर तुम खसारा पाने वालों से हो जाओ। (95) 

बेशक जिन लोगों पर तुम्हारे रब की बात साबित हो गई वह ईमान न लाएंगे। (96) 

अगरचे उन के पास हर निशानी आजाए, यहां तक कि वह दर्दनाक अजाब देख लें। (97)

पर क्यों न हुई कोई बस्ती कि वह ईमान लाती तो उस को उस का ईमान नफा देता, मगर यूनुस (अ) की कौम (कि वह ईमान ले आई), जब वह ईमान लाए तो हम ने उन से दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवाई का अज़ाब उठा लिया, और उन्हें एक मुददत तक नफ़ा पहुंचाया। (98) 

और अगर चाहता तेरा रब अलबत्ता जो ज़मीन में हैं सब के सब ईमान ले आते, पर क्या तू लोगों को मजबूर करेगा? यहां तक कि वह मोमिन हो जाएं। (99)

और किसी शख्स के लिए (अपने इखतियार में) नहीं कि वह अल्लाह के हुक्म के बगैर ईमान ले आए, और वह डालता है (कुफ़ की) गन्दगी उन लोगों पर जो अक्ल नहीं रखते। (100) 

आप (स) कह दें देखो क्या कुछ है? आस्मानों में और ज़मीन में| और निशानियां और डराने वाले (रसूल) उन लोगों को फाइदा नहीं देते जो नहीं मानते। (101) 

तो क्या वह इन्तिज़ार कर रहे हैं मगर उन्हीं लोगों जैसे वाकिआत का जो उन से पहले गुज़र चुके, आप (स) कह दें पर तुम इन्तिज़ार करो बेशक मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करने वालों से हूँ। (102) 

फिर हम बचा लेते हैं अपने रसूलों को, और उसी तरह उन को जो ईमान लाए, हम पर हक (ज़िम्मा) है हम बचालेंगे मोमिनों को। (103) 

आप (स) कह दें, ऐ लोगो! अगर तुम मेरे दीन (के मुतअनिक) किसी शक में हो तो मैं इबादत नहीं करता उन की जिन को तुम अल्लाह के सिवा पूजते हो, लेकिन मैं उस अल्लाह की इबादत करता हूँ जो तुम्हें (दुनिया से) उठा लेता है, और मुझे हुक्म दिया गया कि मोमिनों में से रहूँ। (104) 

और यह कि अपना मुँह सब से मोड़ कर दीन के लिए सीधा रख, और हरगिज़ मुश्रिकों में से न होना। (105)

और अल्लाह के सिवा उसे न पुकार जो न तुझे नफा दे सके, और न कोई नुक्सान पहुंचा सके, फ़िर अगर तू ने (ऐसा) किया तो उस वक्त तू बेशाक जालिमों में से होगा। (106)

और अगर अल्लाह तुझे पहुंचाए कोई नुक्सान तो उस के सिवा कोई उस को हटाने वाला नहीं, और अगर वह तेरा भला चाहे तो कोई उस के फज्ल को रोकने वाला नहीं, वह पहुंचाता है उस को अपने बन्दों में से जिस को चाहता है, और वह बख्शने वाला, निहायत मेहरबान है। (107)

आप (स) कह दें, ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से हक पहुंच चुका, तो जिस ने हिदायत पाई सिर्फ अपनी जान के लिए हिदायत पाई, और जो गुमराह हुआ तो सिर्फ अपने बुरे को गुमराह हुआ, और मैं तुम पर मुख्तार नहीं हूँ, (108) 

और (उस की पैरवी करो जो तुम्हारी तरफ़ वहि हुई है, और सबर करो यहां तक कि अल्लाह फैसला कर दे, और वह बेहतरीन फैसला करने वाला है। (109)

***

10. JONAH

(Yunus)
In the name of God, the Gracious, the Merciful.

1. Alif, Lam, Ra. These are the Verses of the Wise Book.


2. Is it a wonder to the people that We have inspired a man from among them: “Warn mankind, and give good news to those who believe that they are on a sound footing with their Lord”? The disbelievers said, “This is a manifest sorcerer.”


3. Your Lord is God, who created the heavens and the earth in six days, then settled over the Throne, governing all things. There is no intercessor except after His permission. Such is God, your Lord— so serve Him. Will you not reflect?


4. To Him is your return, altogether. The promise of God is true. He originates creation, and then He repeats it, to reward those who believe and do good deeds with equity. As for those who disbelieve, for them is a drink of boiling water, and agonizing torment, on account of their disbelief.


5. It is He who made the sun radiant, and the moon a light, and determined phases for it—that you may know the number of years and the calculation. God did not create all this except with truth. He details the revelations for a people who know.


6. In the alternation of night and day, and in what God created in the heavens and the earth, are signs for people who are aware.


7. Those who do not hope to meet Us, and are content with the worldly life, and are at ease in it, and those who pay no heed to Our signs.


8. These—their dwelling is the Fire—on account of what they used to do.


9. As for those who believe and do good deeds, their Lord guides them in their faith. Rivers will flow beneath them in the Gardens of Bliss.


10. Their call therein is, “Glory be to You, our God.” And their greeting therein is, “Peace.” And the last of their call is, “Praise be to God, Lord of the Worlds.”


11. If God were to accelerate the ill for the people, as they wish to accelerate the good, their term would have been fulfilled. But We leave those who do not expect Our encounter to blunder in their excesses.


12. Whenever adversity touches the human being, he prays to Us—reclining on his side, or sitting, or standing. But when We have relieved his adversity from him, he goes away, as though he had never called on Us for trouble that had afflicted him. Thus the deeds of the transgressors appear good to them.


13. We have destroyed generations before you, when they did wrong. Their messengers came to them with clear signs, but they would not believe. Thus We requite the sinful people.


14. Then We made you successors on earth after them, to see how you would behave.


15. And when Our clear revelations are recited to them, those who do not hope to meet Us say, “Bring a Quran other than this, or change it.” Say, “It is not for me to change it of my own accord. I only follow what is revealed to me. I fear, if I disobeyed my Lord, the torment of a terrible Day.”


16. Say, “Had God willed, I would not have recited it to you, and He would not have made it known to you. I have lived among you for a lifetime before it. Do you not understand?”


17. Who does greater wrong than someone who fabricates lies about God, or denies His revelations? The guilty will never prosper.


18. And they worship, besides God, what neither harms them nor benefits them. And they say, “These are our intercessors with God.” Say, “Are you informing God about what He does not know in the heavens or on earth?” Glorified be He, high above the associations they make.


19. Mankind was a single community; then they differed. Were it not for a prior decree from your Lord, the matters over which they had disputed would have been settled.


20. And they say, “If only a miracle was sent down to him from his Lord.” Say, “The realm of the unseen belongs to God; so wait, I am waiting with you.”


21. When We make the people taste mercy after some adversity has touched them, they begin to scheme against Our revelations. Say, “God is swifter in scheming.” Our envoys are writing down what you scheme.


22. It is He who transports you across land and sea. Until, when you are on ships, sailing in a favorable wind, and rejoicing in it, a raging wind arrives. The waves surge over them from every side, and they realize that they are besieged. Thereupon they pray to God, professing sincere devotion to Him: “If You save us from this, we will be among the appreciative.”


23. But then, when He has saved them, they commit violations on earth, and oppose justice. O people! Your violations are against your own souls. It is the enjoyment of the present life. Then to Us is your return, and We will inform you of what you used to do.


24. The likeness of the present life is this: water that We send down from the sky is absorbed by the plants of the earth, from which the people and the animals eat. Until, when the earth puts on its fine appearance, and is beautified, and its inhabitants think that they have mastered it, Our command descends upon it by night or by day, and We turn it into stubble, as if it had not flourished the day before. We thus clarify the revelations for people who reflect.


25. God invites to the Home of Peace, and guides whomever He wills to a straight path.


26. For those who have done good is goodness, and more. Neither gloom nor shame will come over their faces. These are the inhabitants of Paradise, abiding therein forever.


27. As for those who have earned evil deeds: a reward of similar evil, and shame will cover them. They will have no defense against God—as if their faces are covered with dark patches of night. These are the inmates of the Fire, abiding therein forever.


28. On the Day when We will gather them altogether, then say to those who ascribed partners, “To your place, you and your partners.” Then We will separate between them, and their partners will say, “It was not us you were worshiping.”


29. “God is sufficient witness between us and you. We were unaware of your worshiping us.”


30. There, every soul will experience what it had done previously; and they will be returned to God, their true Master; and what they used to invent will fail them.


31. Say, “Who provides for you from the heaven and the earth? And who controls the hearing and the sight? And who produces the living from the dead, and produces the dead from the living? And who governs the Order?” They will say, “God.” Say, “Will you not be careful?”


32. Such is God, your Lord—the True. What is there, beyond the truth, except falsehood? How are you turned away?


33. Thus your Lord’s Word proved true against those who disobeyed, for they do not believe.


34. Say, “Can any of your partners initiate creation, and then repeat it?” Say, “God initiates creation, and then repeats it. How are you so deluded?”


35. Say, “Can any of your partners guide to the truth?” Say, “God guides to the truth. Is He who guides to the truth more worthy of being followed, or he who does not guide, unless he himself is guided? What is the matter with you? How do you judge?”


36. Most of them follow nothing but assumptions; and assumptions avail nothing against the truth. God is fully aware of what they do.


37. This Quran could not have been produced by anyone other than God. In fact, it is a confirmation of what preceded it, and an elaboration of the Book. There is no doubt about it—it is from the Lord of the Universe.


38. Or do they say, “He has forged it”? Say, “Then produce a single chapter like it, and call upon whomever you can, apart from God, if you are truthful.”


39. In fact, they deny what is beyond the limits of their knowledge, and whose explanation has not yet reached them. Thus those before them refused to believe. So note the consequences for the wrongdoers.


40. Among them are those who believe in it, and among them are those who do not believe in it. Your Lord is fully aware of the mischief-makers.


41. If they accuse you of lying, say, “I have my deeds, and you have your deeds. You are quit of what I do, and I am quit of what you do.”


42. And among them are those who listen to you. But can you make the deaf hear, even though they do not understand?


43. And among them are those who look at you. But can you guide the blind, even though they do not see?


44. God does not wrong the people in the least, but the people wrong their own selves.


45. On the Day when He rounds them up—as if they had tarried only one hour of a day—they will recognize one another. Those who denied the meeting with God will be the losers. They were not guided.


46. Whether We show you some of what We promise them, or take you, to Us is their return. God is witness to everything they do.


47. Every community has a messenger. When their messenger has come, judgment will be passed between them with fairness, and they will not be wronged.


48. And they say, “When will this promise be fulfilled, if you are truthful?”


49. Say, “I have no power to harm or benefit myself, except as God wills. To every nation is an appointed time. Then, when their time arrives, they can neither postpone it by one hour, nor advance it.


50. Say, “Have you considered? If His punishment overtakes you by night or by day, what part of it will the guilty seek to hasten?”


51. “Then, when it falls, will you believe in it? Now? When before you tried to hasten it?”


52. Then it will be said to those who did wrong, “Taste the torment of eternity. Will you be rewarded except for what you used to do?”


53. And they inquire of you, “Is it true?” Say, “Yes, by my Lord, it is true, and you cannot evade it.”


54. Had every soul which had done wrong possessed everything on earth, it would offer it as a ransom. They will hide the remorse when they witness the suffering, and it will be judged between them equitably, and they will not be wronged.


55. Assuredly, to God belongs everything in the heavens and the earth. Assuredly, the promise of God is true, but most of them do not know.


56. He gives life and causes death, and to Him you will be returned.


57. O people! There has come to you advice from your Lord, and healing for what is in the hearts, and guidance and mercy for the believers.


58. Say, “In God’s grace and mercy let them rejoice. That is better than what they hoard.”


59. Say, “Have you considered the sustenance God has sent down for you, some of which you made unlawful, and some lawful?” Say, “Did God give you permission, or do you fabricate lies and attribute them to God?”


60. What will they think—those who fabricate lies and attribute them to God—on the Day of Resurrection? God is bountiful towards the people, but most of them do not give thanks.


61. You do not get into any situation, nor do you recite any Quran, nor do you do anything, but We are watching over you as you undertake it. Not even the weight of an atom, on earth or in the sky, escapes your Lord, nor is there anything smaller or larger, but is in a clear record.


62. Unquestionably, God’s friends have nothing to fear, nor shall they grieve.


63. Those who believe and are aware.


64. For them is good news in this life, and in the Hereafter. There is no alteration to the words of God. That is the supreme triumph.


65. And let not their sayings dishearten you. All power is God’s. He is the Hearer, the Knower.


66. Certainly, to God belongs everyone in the heavens and everyone on earth. Those who invoke other than God do not follow partners; they follow only assumptions, and they only guess.


67. It is He who made the night for your rest, and the daylight for visibility. Surely in that are signs for people who listen.


68. And they said, “God has taken a son.” Be He glorified. He is the Self-Sufficient. His is everything in the heavens and everything on earth. Do you have any proof for this? Or are you saying about God what you do not know?


69. Say, “Those who fabricate lies about God will not succeed.”


70. Some enjoyment in this world; then to Us is their return; then We will make them taste the severe punishment on account of their disbelief.


71. And relate to them the story of Noah, when he said to his people, “O my people, if my presence among you and my reminding you of God’s signs is too much for you, in God I have put my trust. So come to a decision, you and your partners, and do not let the matter perplex you; then carry out your decision on me, and do not hold back.”


72. “But if you turn away, I have not asked you for any wage. My wage falls only on God, and I was commanded to be of those who submit.”


73. But they denounced him, so We saved him and those with him in the Ark, and We made them successors, and We drowned those who rejected Our signs. So consider the fate of those who were warned.


74. Then, after him, We sent messengers to their people. They came to them with the clear proofs, but they would not believe in anything they had already rejected. Thus We set a seal on the hearts of the hostile.


75. Then, after them, We sent Moses and Aaron with Our proofs to Pharaoh and his dignitaries. But they acted arrogantly. They were sinful people.


76. And when the truth came to them from Us, they said, “This is clearly sorcery.”


77. Moses said, “Is this what you say of the truth when it has come to you? Is this sorcery? Sorcerers do not succeed.”


78. They said, “Did you come to us to divert us from what we found our ancestors following, and so that you become prominent in the land? We will never believe in you.”


79. Pharaoh said, “Bring me every experienced sorcerer.”


80. And when the sorcerers came, Moses said to them, “Throw whatever you have to throw.”


81. And when they threw, Moses said, “What you produced is sorcery, and God will make it fail. God does not foster the efforts of the corrupt.”


82. “And God upholds the truth with His words, even though the sinners detest it.”


83. But none believed in Moses except some children of his people, for fear that Pharaoh and his chiefs would persecute them. Pharaoh was high and mighty in the land. He was a tyrant.


84. Moses said, “O my people, if you have believed in God, then put your trust in Him, if you have submitted.”


85. They said, “In God we have put our trust. Our Lord, do not make us victims of the oppressive people.”


86. “And deliver us, by Your mercy, from the disbelieving people.”


87. And We inspired Moses and his brother, “Settle your people in Egypt, and make your homes places of worship, and perform the prayer, and give good news to the believers.”


88. Moses said, “Our Lord, you have given Pharaoh and his chiefs splendor and wealth in the worldly life. Our Lord, for them to lead away from Your path. Our Lord, obliterate their wealth, and harden their hearts; they will not believe until they see the painful torment.”


89. He said, “Your prayer has been answered, so go straight, and do not follow the path of those who do not know.”


90. And We delivered the Children of Israel across the sea. Pharaoh and his troops pursued them, defiantly and aggressively. Until, when he was about to drown, he said, “I believe that there is no god except the One the Children of Israel believe in, and I am of those who submit.”


91. Now? When you have rebelled before, and been of the mischief-makers?


92. Today We will preserve your body, so that you become a sign for those after you. But most people are heedless of Our signs.


93. And We settled the Children of Israel in a position of honor, and provided them with good things. They did not differ until knowledge came to them. Your Lord will judge between them on the Day of Resurrection regarding their differences.


94. If you are in doubt about what We have revealed to you, ask those who read the Scripture before you. Indeed, the truth has come to you from your Lord, so do not be of those who doubt.


95. And do not be of those who deny God’s revelations, lest you become one of the losers.


96. Those against whom your Lord’s word is justified will not believe.


97. Even if every sign comes to them—until they see the painful punishment.


98. If only there was one town that believed and benefited by its belief. Except for the people of Jonah. When they believed, We removed from them the suffering of disgrace in the worldly life, and We gave them comfort for a while.


99. Had your Lord willed, everyone on earth would have believed. Will you compel people to become believers?


100. No soul can believe except by God’s leave; and He lays disgrace upon those who refuse to understand.


101. Say, “Look at what is in the heavens and the earth.” But signs and warnings are of no avail for people who do not believe.


102. Do they expect anything but the likes of the days of those who passed away before them? Say, “Then wait, I will be waiting with you.”


103. Then We save Our messengers and those who believe. It is binding on Us to save the believers.


104. Say, “O people, if you are in doubt about my religion—I do not serve those you serve apart from God. But I serve God, the one who will terminate your lives. And I was commanded to be of the believers.”


105. And dedicate yourself to the true religion— a monotheist—and never be of the polytheists.


106. And do not call, apart from God, on what neither benefits you nor harms you. If you do, you are then one of the wrongdoers.


107. If God afflicts you with harm, none can remove it except He. And if He wants good for you, none can repel His grace. He makes it reach whomever He wills of His servants. He is the Forgiver, the Merciful.


108. Say, “O people, the truth has come to you from your Lord. Whoever accepts guidance is guided for his own soul; and whoever strays only strays to its detriment. I am not a guardian over you.”


109. And follow what is revealed to you, and be patient until God issues His judgment, for He is the Best of judges.         


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