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सूरा-अल-इमरान | Surah 3

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सूरा-अल-इमरान

| मदीना कालीन | आयत 200 | 

इमरान का घराना 

सूरा अल इमरान | Surah 3

अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहरबान, रहम करने वाला है। 

अलिफ़-लाम-मीम (1) 

अल्लाह, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, हमेशा ज़िन्दा, (सब का) संभालने वाला| (2) 

उस ने आप (स) पर किताब उतारी हक़ के साथ जो उस से पहली (किताबों) की तस्दीक करती है, और उस ने तौरेत और इन्जील उतारी (3) 

उस से पहले लोगों की हिदायत के लिए, और उस ने फुरकान (हक़ को बातिल से जुदा करने वाला) उतारा, बेशक जिन्हों ने अल्लाह की आयतों से इनकार किया उन के लिए सख्त अज़ाब है, और अल्लाह ज़बरदस्त है, बदला लेने वाला। (4) 

बेशक अल्लाह पर छुपी हुई नहीं कोई चीज़ ज़मीन में और न आस्मान में, (5) 

वही तो है जो तुम्हारी सूरत बनाता है (माँ के) रम में जैसे वह चाहे, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, ज़बरदस्त हिक्मत वाला| (6) 

वही तो है जिस ने आप (स) पर किताब नाज़िल की, उस में मुहक्कम (पुख्ता) आयतें हैं वह किताब की असल हैं, और दूसरी मुताशाबेह (कई मअने देने वाली), पर जिन लोगों के दिलों में कजी है सो वह उस से मुताशाबिहात की पैरवी करते हैं, फ़साद (गुमराही) की ग़र्ज़ से और उस का (गलत) मतलब ढून्डने की गर्ज से, और उस का मतलब अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता, और मजबूत ( पुख्ता) इल्म वाले कहते हैं हम उस पर ईमान लाए सब हमारे रब की तरफ से है। और नहीं समझते मगर अक्ल वाले (सिर्फ अक्ल वाले समझते हैं) (7) 

ऐ हमारे रब! हमारे दिल न फेर इस के बाद जब कि तू ने हमें हिदायत दी और हमें इनायत फरमा अपने पास से रहमत, बेशक तू सब से बड़ा देने वाला है। (8)


ऐ हमारे रब! बेशक तू लोगों को उस दिन जमा करने वाला है कोई शक नहीं जिस में, बेशक अल्लाह वादे के ख़िलाफ़ नहीं करता। (9) 

बेशक जिन लोगों ने कुफ़ किया, हरगिज़ न उन के माल उन के काम आएंगे और न उन की औलाद अल्लाह के सामने कुछ भी, और वही वह दोज़ख़ का इंधन है। (10)

जैसे फ़िरऔन वालों का मामला हुआ और वह जो उन से पहले थे, उन्हों ने हमारी आयतों को झुटलाया तो अल्लाह ने उन्हें उन के गुनाहों पर पकड़ा, और अल्लाह सख़्त अज़ाब देने वाला है। (11)

जिन लोगों ने कुफ़ किया उन्हें कह दें तुम अनक़रीब मगलूब होगे और जहन्नम की तरफ़ हांके जाओगे, और वह बुरा ठिकाना है। (12)

अलबत्ता तुम्हारे लिए उन दो गिरोहों में निशानी है जो बाहम मुकाबिल हुए, एक गिरोह लड़ता था अल्लाह की राह में और दूसरा काफ़िर था, वह उन्हें खुली आँखों से अपने से दो चन्द दिखाई देते थे, और अल्लाह अपनी मदद से जिसे चाहता है ताईद करता है, बेशक उस में देखने वालों (अक्लमन्दों) के लिए एक इब्रत है। (13) 

लोगों के लिए मरगूब चीज़ों की मुहब्बत खुशनुमा कर दी गई, मसलन औरतें और बेटे, और ढेर जमा किए हुए सोने और चाँदी के, और निशान ज़दा घोड़े, और मवेशी, और खेती, यह दुनिया की ज़िन्दगी का साज़ ओ सामान है, और अल्लाह के पास अच्छा ठिकाना है। (14) 

कह दें, क्या मैं तुम्हें इस से बेहतर बताऊँ? उन लोगों के लिए जो परहेज़गार हैं, उन के रब के पास बागात हैं जिन के नीचे नहरें जारी (रवा) हैं, वह उन में हमेशा रहेंगे, और पाक बीवियां और अल्लाह की खुशनूदी, और अल्लाह बन्दों को देखने वाला है। (15)

जो लोग कहते हैं ऐ हमारे रब! बेशक हम ईमान लाए, सो हमें हमारे गुनाह बख्शदे और हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा। (16)

सबर करने वाले और सच्चे, हुक्म बजा लाने वाले, खर्च करने वाले और बखुशिश मांगने वाले रात के आख़िर हिस्से में | (17)

अल्लाह ने गवाही दी कि उस के सिवा कोई माबूद नहीं, और फ़रिश्तों और इल्म वालों ने (भी), (वही) हाकिम है इन्साफ़ के साथ, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, ज़बरदस्त हिक्मत वाला। (18)

बेशक दीन अल्लाह के नज़दीक इसलाम है, और जिन्हें किताब दी गई (अहले किताब) ने इखतिलाफ़ नहीं किया मगर उस के बाद जब कि उन के पास आ गया इल्म, आपस की ज़िद से, और जो अल्लाह की आयात (हुक्मों) का इन्कार करे तो बेशक अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। (19)

फिर अगर वह आप (स) से झगड़ें तो कह दें मैं ने अपना मुँह अल्लाह के लिए झुका दिया और जिस ने मेरी पैरवी की, और आप (स) अहले किताब और अनपढ़ों से कह दें क्या तुम इस्लाम लाए? पर अगर वह इस्लाम ले आए तो उन्हों ने राह पा ली, और अगर वह मुँह फेर लें तो आप पर सिर्फ पहुँचा देना है, और अल्लाह देखने वाला है (अपने) बन्दों को| (20)

बेशक जो लोग अल्लाह की आयतों का इनकार करते हैं और नबियों को कतल करते हैं नाहक़, और उन्हें कतल करते हैं जो लोग इन्साफ़ का हुक्म करते हैं, सो उन्हें दर्दनाक अज़ाब की खुशखबरी दें| (21)

यही वह लोग हैं जिन के अमल ज़ाया हो गए दुनिया में और आख़िरत में, और उन का कोई मददगार नहीं। (22)

क्या तुम ने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें दिया गया किताब का एक हिस्सा, वह अल्लाह की किताब की तरफ़ बुलाए जाते हैं ता कि वह उन के दरमियान फैसला करे, फिर उन का एक फ़रीक़ फिर जाता है, और वह मुँह फेरने वाले हैं। (23)

यह इस लिए है कि वह कहते हैं हमें (दोज़ख़) की आग हरगिज़ न छुएगी मगर गिनती के चन्द दिन, और उन्हें उन के दीन (के बारे) में धोके में डाल दिया उस ने जो वह घड़ते थे। (24)

सो क्या (हाल होगा) जब हम उन्हें उस दिन जमा करेंगे जिस में कोई शक नहीं, और हर शख्स पूरा पूरा पाएगा जो उस ने कमाया और उन की हक़ तलफ़ी न होगी। (25)

आप कहें ऐ अल्लाह! मालिके मुल्क तू जिसे चाहे मुल्क दे, तू मुल्क छीन ले जिस से तू चाहे, और तू जिसे चाहे इज़्ज़त दे और जिसे चाहे ज़लील कर दे, तेरे हाथ में तमाम भलाई है, बेशक तू हर चीज़ पर कादिर है। (26)

तू रात को दिन में दाखिल करता है और दाखिल करता है दिन को रात में, और तू बेजान से जानदार निकालता है और जानदार से बेजान निकालता है, और जिसे चाहे बेहिसाब रिजुक देता है। (27)

मोमिन न बनाएं मोमिनों को छोड़ कर काफ़िरों को दोस्त, और जो ऐसा करे तो उस का अल्लाह से कोई तअल्लुक नहीं सिवाए इस के कि तुम उन से बचाव करो, और अल्लाह तुम्हें डराता है अपनी जात से, और अल्लाह की तरफ़ लौट कर जाना है। (28)

कह दें जो कुछ तुम्हारे दिलों में है अगर तुम छुपाओ या उसे जाहिर करो अल्लाह उसे जानता है, और वह जानता है जो कुछ आस्मानों में और ज़मीन में है, और अल्लाह हर चीज़ पर कादिर है। (29)

जिस दिन हर शख्स (मौजूद) पाएगा जो उस ने की कोई नेकी, और जो उस ने कोई बुराई की| वह आरजू करेगा काश उस के दरमियान और उस (बुराई) के दरमियान दूर का फासला होता, और अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है, और अल्लाह शफ़क़त करने वाला है बन्दों पर| (30) 

आप कह दें अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी करो, अल्लाह तुम से मुहब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाह बख्शदेगा, और अल्लाह बख्शने वाला रहम करने वाला है। (31) 

आप कह दें तुम इताअत करो अल्लाह की और रसूल की, फिर अगर वह फिर जाएं तो बेशक अल्लाह काफ़िरों को दोस्त नहीं रखता। (32) 

बेशक अल्लाह ने चुन लिया आदम (अ) और नूह (अ) को और इब्राहीम (अ) ओ इमरान के घराने को सारे जहान पर। (33) 

वह औलाद थे एक दूसरे की, और अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है। (34) 

जब इमरान की बीवी ने कहा ऐ मेरे रब! जो मेरे पेट में है, मैं ने तेरी नज़र किया (सब से) आज़ाद रख कर, सो तू मुझ से कुबूल कर ले, बेशक तू सुनने वाला, जानने वाला है। (35) 

सो जब उस ने उस (मरयम) को जन्म दिया तो वह बोली ऐ मेरे रब! मैं ने जन्म दी है लड़की, और अल्लाह खूब जानता है जो उस ने जन्म दिया, और लड़का लड़की के मानिंद नहीं होता और मैं ने उस का नाम मरयम रखा, और मैं उस को और उस की औलाद को तेरी पनाह में देती हूँ शैतान मरदूद से| (36) 

तो उस को उस के रब ने अच्छी तरह कुबूल किया और उस को अच्छी तरह परवान चढ़ाया और जकरिया (अ) को उस का कफ़ील बनाया | जब भी जकरिया (अ) उस के पास हुजरे में दाखिल होते उस के पास खाना पाते, उस (जकरिया (अ) ने कहा ऐ मरयम! यह तेरे पास कहां से आया? उस ने कहा यह अल्लाह के पास से है, बेशक अल्लाह जिसे चाहे बेहिसाब रिजक देता है। (37)

वहीं जकरिया (अ) ने अपने रब से दुआ की | ऐ मेरे रब! मुझे अपने पास से पाक औलाद अता कर, तू बेशक दुआ सुनने वाला है। (38) 

तो उन्हें आवाज़ दी फ़रिश्तों ने जब वह हुजरे में खड़े हुए नमाज़ पढ़ रहे थे कि अल्लाह तुम्हें यया (अ) की खुशखबरी देता है अल्लाह के कलिमे की तस्दीक करने वाला, सरदार, और नफ़्स को काबू रखने वाला, और नबी (होगा) नेकोकारों में से| (39)

उस ने कहा ऐ मेरे रब! मेरे लड़का कहां से होगा ? जब कि मुझे बुढ़ापा पहुँच चुका है, और मेरी औरत बांझ है, उस ने कहा इसी तरह अल्लाह जो चाहता है करता है। (40) 

उस ने कहा ऐ मेरे रब! मुकर्रर फ़रमा दे मेरे लिए कोई निशानी? उस ने कहा तेरी निशानी यह है कि तु लोगों से तीन दिन बात न करेगा मगर इशारे से, तू अपने रब को बहुत याद कर, और सुबह ओ शाम तसबीह कर। (41) 

और जब फ़रिश्तों ने कहा ऐ मरयम! बेशक अल्लाह ने तुझ को चुन लिया और तुझ को पाक किया और तुझ को बरगुजीदा किया औरतों पर तमाम जहान की| (42)

ऐ मरयम! तू अपने रब की फ़रमांबरदारी कर और सिजदा कर और रुकूअ कर रुकूअ करने वालों के साथ। (43) 

यह गैब की ख़बरें हैं, हम आप की तरफ़ वहि करते हैं, और आप उन के पास न थे जब वह (कुरआ के लिए) अपने कलम डाल रहे थे कि उन में से कौन मरयम की पर्वरिश करेगा? और आप (स) उन के पास न थे जब वह झगड़ते थे| (44)

जब फरिश्तों ने कहा ऐ मरयम! बेशक अल्लाह तुझे अपने एक कलमे की बशारत देता है, उस का नाम मसीह (अ) ईसा (अ) इब्ने मरयम है, दुनिया और आख़िरत में बाआबरू, और मुर्रिबों से होगा, (45)

और लोगों से गहवारे में और पुख्ता उम्र में बातें करेगा और नेकोकारों में से होगा। (46) 

वह बोली ऐ मेरे रब! मेरे हां बेटा कैसे होगा? और किसी मर्द ने मुझे हाथ नहीं लगाया, उस ने कहा इसी तरह अल्लाह जो चाहे पैदा करता है, जब वह किसी काम का इरादा करता है तो वह कहता है उस को "हो जा” सो वह हो जाता है। (47) 

और वह उस को सिखाएगा किताब और दानाई और तौरेत और इन्जील| (48)

और बनी इस्राईल की तरफ़ एक रसूल, (उस ने कहा कि मैं तुम्हारी तरफ़ एक निशानी के साथ आया हूँ तुम्हारे रब की तरफ़ से, मैं तुम्हारे लिए गारे से परिन्दे जैसी शक्ल बनाता हूँ, फिर उस में फूंक मारता हूँ तो वह अल्लाह के हुक्म से परिन्दा हो जाता है, और मैं अच्छा करता हूँ मादरज़ाद अन्धे और कोढ़ी को, और मैं अल्लाह के हुक्म से मुर्दे जिन्दा करता हूँ, और मैं तुम्हें बताता हूँ जो तुम खाते हो और जो तुम अपने घरों में जखीरा करते हो, बेशक उस में तुम्हारे लिए एक निशानी है अगर तुम हो ईमान वाले| (49) 

और मैं अपने से पहली (किताब) तौरेत की तस्दीक़ करने वाला हूँ और ता कि तुम्हारे लिए बाज़ वह चीजें हलाल कर दूँ जो तुम पर हराम की गई थीं, और तुम्हारे पास एक निशानी के साथ आया हूँ तुम्हारे रब से, सो तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो। (50) 

बेशक अल्लाह (ही) मेरा और तुम्हारा रब है, सो तुम उस की इबादत करो, यह सीधा रास्ता है। (51) 

फिर जब ईसा (अ) ने महसूस किया उन से कुफ़ (तो) कहा कौन है अल्लाह की तरफ़ मेरी मदद करने वाला? हवारियों ने कहा हम अल्लाह की मदद करने वाले हैं, हम अल्लाह पर ईमान लाए, और गवाह रह कि हम फ़रमांबरदार हैं, (52) 

ऐ हमारे रब! हम उस पर ईमान लाए जो तू ने नाज़िल किया और हम ने रसूल की पैरवी की, सो तू हमें गवाही देने वालों के साथ लिख ले| (53)

और उन्हों ने मकर किया और अल्लाह ने खुफ़िया तदबीर की, और अल्लाह (सब) तदबीर करने वालों से बेहतर है। (54)

जब अल्लाह ने कहा ऐ ईसा (अ): मैं तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा और तुझे पाक कर दूँगा उन लोगों से जिन्हों ने कुफ़ किया, और जिन्हों ने तेरी पैरवी की उन्हें ऊपर (गालिब) रखूगा उन के जिन्हों ने कुफ़ किया कियामत के दिन तक| फिर तुम्हें मेरी तरफ़ लौट कर आना है, फिर मैं तुम्हारे दरमियान फैसला करूँगा जिस (बारे) में तुम इखतिलाफ़ करते थे| (55) 

पर जिन लोगों ने कुफ़ किया, सो उन्हें सख़्त अज़ाब दूंगा दुनिया और आख़िरत में, और उन का कोई मददगार न होगा। (56)

और जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने नेक काम किए तो (अल्लाह) उन के अजर उन्हें पूरे देगा, और अल्लाह दोस्त नहीं रखता ज़ालिमों को | (57)

हम आप (स) पर यह आयतें और हिक्मत वाली नसीहत पढ़ते हैं। (58)

बेशक अल्लाह के नज़दीक ईसा (अ) की मिसाल आदम (अ) जैसी है, उसे मिट्टी से पैदा किया, फिर कहा उस को “हो जा” तो वह हो गया। (59)

हक़ आप के रब की तरफ़ से है, पर शक करने वालों में से न होना। (60)

जो आप (स) से इस बारे में झगड़े उस के बाद जब कि आप के पास इल्म आगया तो आप (स) कह दें! आओ हम बुलाएं अपने बेटे और तुम्हारे बेटे, और अपनी औरतें और तुम्हारी औरतें, और हम खुद और तुम खुद (भी), फिर हम सब इल्तिजा करें, फिर झूटों पर अल्लाह की लानत भेजें। (61)

बेशक यही सच्चा बयान है, और अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, और बेशक अल्लाह ही गालिब, हिक्मत वाला है। (62)

फिर अगर वह फिर जाएं तो बेशक अल्लाह फ़साद करने वालों को खूब जानता है। (63)

आप (स) कह दें ऐ अहले किताब! उस एक बात पर आओ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान बराबर । (मुशतरिक) है कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और उस के साथ किसी को शरीक न ठहराएं और हम में से कोई किसी को न बनाए रब अल्लाह के सिवा, फिर अगर वह फिर जाएं तो तुम कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम तो मुस्लिम (फ़रमांबरदार) हैं। (64)

ऐ अहले किताब! तुम इब्राहीम (अ) के बारे में क्यों झगड़ते हो? और नहीं नाज़िल की गई तौरेत और इनजील मगर उन के बाद, तो क्या तुम अक्ल नहीं रखते? (65)

हां! तुम वही लोग हो कि तुम ने उस (बारे) में झगड़ा किया जिस का तुम्हें इल्म था तो अब क्यों झगड़ते हो उस (बारे) में जिस का तुम्हें कुछ इल्म नहीं, और अल्लाह जानता है, और तुम नहीं जानते। (66)

इब्राहीम (अ) न यहूदी थे न नसरानी, (बल्कि) वह हनीफ़ (सब से रुख मोड़ कर अल्लाह के हो जाने वाले) मुस्लिम (फ़रमांबरदार) थे, और वह मुशरिकों में से न थे| (67)

बेशक सब लोगों से ज़ियादा मुनासिबत है इब्राहीम (अ) से उन लोगों को जिन्हों ने उन की पैरवी की, और इस नबी को और वह लोग जो ईमान लाए, और अल्लाह मोमिनों का कारसाज़ है। (68)

अहले किताब की एक जमाअत चाहती है काश! वह तुम्हें गुमराह कर दें, और वह अपने सिवा किसी को गुमराह नहीं करते, और वह समझते नहीं। (69)

ऐ अहले किताब! तुम क्यों इन्कार करते हो अल्लाह की आयतों का ? हालांकि तुम गवाह हो। (70)

ऐ अहले किताब! तुम क्यों मिलाते हो सच को झूट के साथ और तुम हक़ को छुपाते हो हालांकि तुम जानते हो। (71)

और एक जमाअत ने कहा अहले किताब की कि जो कुछ मुसलमानों पर नाज़िल किया गया है, उसे दिन के अव्वल हिस्से में मान लो और मुन्किर हो जाओ उस के आखिर हिस्से में (शाम को) शायद कि वह फिर जाएं। (72)

और तुम (किसी की बात) न मानो सिवाए उस के जो पैरवी करे तुम्हारे दीन की, आप (स) कह दें बेशक हिदायत अल्लाह ही की हिदायत है कि किसी को दिया गया जैसा कि तुम्हें दिया गया था, या वह तुम से तुम्हारे रब के सामने हुज्जत करें, आप (स) कह दें, बेशक फज्ल अल्लाह के हाथ में है, वह देता है जिस को वह चाहता है, और अल्लाह वुअत वाला, जानने वाला है। (73) 

वह जिस को चाहता है अपनी रहमत से ख़ास कर लेता है, और अल्लाह बड़े फज्ल वाला है। (74) 

और अहले किताब में कोई (ऐसा है) कि अगर आप (स) उस के पास अमानत रखें ढेरों माल तो वह आप (स) को अदा करदे, और उन में से कोई (ऐसा है) अगर आप उस के पास एक दीनार अमानत रखें तो वह अदा न करे मगर जब तक आप (स) उस के सर पर खड़े रहें, यह इस लिए है कि उन्हों ने कहा हम पर उमियों के (बारे) में (इलज़ाम की) कोई राह नहीं, और वह अल्लाह पर झूट बोलते हैं, और वह जानते हैं। (75) 

क्यों नहीं? जो कोई अपना इक़रार पूरा करे और परहेज़गार रहे तो बेशक अल्लाह परहेज़गारों को दोस्त रखता है। (76) 

बेशक जो लोग अल्लाह के अहद और अपनी कस्मों से हासिल करते हैं थोड़ी कीमत, यही लोग हैं जिन के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं और न अल्लाह उन से कलाम करेगा और न उन की तरफ़ नज़र करेगा क़ियामत के दिन और न उन्हें पाक करेगा, और उन के लिए दर्दनाक अज़ाब है। (77)

और बेशक उन में एक फरीक़ है जो किताब (पढ़ते वक्त) अपनी ज़बानें मरोड़ते हैं, ताकि तुम समझो कि वह किताब से है, हालांकि वह किताब से नहीं (होता), और वह कहते हैं कि वह अल्लाह की तरफ़ से है, हालांकि वह नहीं अल्लाह की तरफ़ से, और अल्लाह पर झूट बोलते हैं और वह जानते हैं। (78)

किसी आदमी के लिए (यह शायान) नहीं कि अल्लाह उसे किताब और हिक्मत और नुबूब्वत अता करे, फिर वह लोगों को कहे कि तुम अल्लाह के बजाए मेरे बन्दे हो जाओ, लेकिन (वह यहि कहेगा कि) तुम अल्लाह वाले हो जाओ, इस लिए कि तुम किताब सिखाते हो और तुम खुद (भी) पढ़ते हो। (79)

और न वह तुम्हें हुक्म देगा कि तुम फरिश्तों और नबियों को परवरदिगार ठहराओ, क्या वह तुम्हें हुक्म देगा कुफ़ का? इस के बाद कि तुम मुसलमान (फ़रमांबरदार) हो चुके | (80)

और जब अल्लाह ने अहद लिया नबियों से कि जो कुछ मैं तुम्हें किताब और हिक्मत , फिर तुम्हारे पास रसूल आए उस की तस्दीक़ करता हुआ जो तुम्हारे पास है तो तुम उस पर ज़रूर ईमान लाओगे, और ज़रूर उस की मदद करोगे, उस ने फ़रमाया क्या तुम ने इकरार किया और तुम ने इस पर मेरा अहद कुबूल क्या? उन्हों ने कहा कि हम ने इक़रार किया, उस ने फ़रमाया पर तुम गवाह रहो और मैं तुम्हारे साथ गवाहों में से हूँ। (81) 

फिर जो इस के बाद फिर जाए तो वही नाफरमान हैं। (82)

क्या वह अल्लाह के दीन के सिवा (कोई और दीन) चाहते हैं? और उसी का फ़रमांबरदार है जो आस्मानों और ज़मीन में है, चार ओ नाचार, और उसी की तरफ़ वह लौटाए जाएंगे| (83)

कह दें हम ईमान लाए अल्लाह पर, और जो हम पर नाज़िल किया गया और जो नाज़िल किया गया इब्राहीम (अ), इस्माईल (अ), इसहाक (अ), याकूब (अ) और उन की औलाद पर, और जो दिया गया मूसा (अ) और ईसा (अ) और नबियों को उन के रब की तरफ़ से, हम फ़र्क नहीं करते उन में से किसी एक के दरमियान, और हम उसी के फ़रमांबरदार हैं। (84)

और जो कोई चाहेगा इस्लाम के सिवा कोई और दीन तो उस से हरगिज़ कुबूल न किया जाएगा, और वह आख़िरत में नुक्सान उठाने वालों में से होगा। (85)

अल्लाह ऐसे लोगों को क्योंकर हिदायत देगा जो काफ़िर हो गए अपने ईमान के बाद और गवाही दे चुके कि यह रसूल सच्चे हैं, और उन के पास खुली निशानियां आ गईं, और अल्लाह ज़ालिम लोगों को हिदायत नहीं देता। (86)

ऐसे लोगों की सज़ा है कि उन पर लानत है अल्लाह की और फ़रिश्तों की और तमाम लोगों की| (87)

वह उस में हमेशा रहेंगे| न उन से अज़ाब हलका किया जाएगा और न उन्हें मुहलत दी जाएगी। (88)

मगर जिन लोगों ने इस के बाद तौबा की और इस्लाह की, तो बेशक अल्लाह बख्शने वाला, रहम करने वाला है। (89)

बेशक जो लोग काफ़िर हो गए अपने ईमान के बाद, फिर बढ़ते गए कुफ़ में, उन की तौबा हरगिज़ न कुबूल की जाएगी, और वही लोग गुमराह हैं। (90)

बेशक जिन लोगों ने कुफ़ किया और वह मर गए हालते कुफ़ में, तो हरगिज़ न कुबूल किया जाएगा उन में से किसी से ज़मीन भर सोना भी, अगरचे वह उस को बदले में दे, यही लोग हैं उन के लिए दर्दनाक अज़ाब है और उन के लिए कोई मददगार नहीं। (91)

तुम हरगिज़ नेकी को न पहुँचोगे जब तक उस में से ख़र्च न करो जिस से तुम मुहब्बत रखते हो, और जो तुम ख़र्च करोगे कोई चीज़ तो बेशक अल्लाह उस को जानने वाला है। (92) 

तमाम खाने हलाल थे बनी इस्राईल के लिए, मगर जो याकूब (अ) ने अपने आप पर हराम कर लिया था उस से कब्ल कि तौरेत उतरे, आप कह दें कि तुम तौरेत लाओ, फिर उस को पढ़ो अगर तुम सच्चे हो| (93) 

फिर जो कोई अल्लाह पर इस के बाद झूट बाँधे तो वही लोग ज़ालिम हैं। (94) 

आप कह दें अल्लाह ने सच फ़रमाया, पर तुम इब्राहीम हनीफ़ (एक के हो जाने वाले) के दीन की पैरवी करो और वह मुश्रिकों में से न थे| (95) 

बेशक सब से पहले जो घर मुकर्रर किया गया लोगों के लिए वह जो मक्का में है बरकत वाला और सारे जहानों के लिए हिदायत | (96) 

उस में निशानियां हैं खुली (जैसे) मुकामे इब्राहीम (अ), और जो उस में दाखिल हुआ वह अमन में हो गया, और अल्लाह के लिए (अल्लाह का हक़ है) लोगों पर खानाए काबा का हज करना जो उस की तरफ़ राह ( चलने की) इस्तिताअत रखता हो, और जिस ने कुफ़ किया तो बेशक अल्लाह जहान वालों से बेनियाज़ है। (97) 

आप (स) कह दें: ऐ अहले किताब! क्यों तुम अल्लाह की आयतों का इनकार करते हो? और अल्लाह उस पर गवाह है (बाख़बर है) जो तुम करते हो। (98) 

आप (स) कह दें: ऐ अहले किताब! तुम अल्लाह के रास्ते से क्यों रोकते हो (उस को) जो अल्लाह पर ईमान लाए, तुम उस में कजी ढूंडते हो, और तुम खुद गवाह हो, और अल्लाह उस से बेख़बर नहीं जो तुम करते हो। (99) 

ऐ वह लोगो जो ईमान लाए हो (ऐ ईमान वालो!) अगर कहा मानोगे उन लोगों के एक फ़रीक़ का जिन्हें किताब दी गई (अहले किताब) वह तुम्हारे ईमान लाने के बाद तुम्हें (हालते) कुफ़ में फेर देंगे| (100)

और तुम कैसे कुफ़ करते हो जबकि तुम पर अल्लाह की आयतें पढ़ी जाती हैं और तुम्हारे दरमियान उस का रसूल (स) मौजूद है, और जो कोई मज़बूती से पकड़ेगा अल्लाह (की रस्सी) को तो उसे सीधे रास्ते की तरफ़ हिदायत दी गई। (101) 

ऐ वह लोगो जो ईमान लाए हो (ऐ ईमान वालो)! अल्लाह से डरो जैसा कि उस से डरने का हक़ है और तुम हरगिज़ न मरना मगर (उस हाल में) कि तुम मुसलमान हो। (102) 

और मज़बूती से पकड़ लो अल्लाह की रस्सी को सब मिल कर और आपस में फूट न डालो, और अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो, जब तुम (एक दूसरे के) दुशमन थे तो उस ने तुम्हारे दिलों में उल्फ़त डाल दी तो तुम उस के फज्ल से भाई भाई हो गए, और तुम आग के गढ़े के किनारे पर थे तो उस ने तुम्हें उस से बचा लिया, इसी तरह वह तुम्हारे लिए अपनी आयात वाजेह करता है ताकि तुम हिदायत पाओ| (103)

और चाहिए कि तुम में से एक जमाअत रहे, वह भलाई की तरफ़ बुलाए और अच्छे कामों का हुक्म दे और बुराई से रोके, और यही लोग कामयाब होने वाले हैं। (104) 

और उन लोगों की तरह न हो जाओ जो मुतफ़र्रिक हो गए और बाहम इख़तिलाफ़ करने लगे उस के बाद कि उन के पास वाज़ेह हुक्म आगए, और यही लोग हैं जिन के लिए है अज़ाब बहुत बड़ा। (105) 

जिस दिन बाज़ चेहरे सफ़ेद होंगे और बाज़ चेहरे सियाह होंगे, पर जिन लोगों के सियाह हुए चेहरे (उन से कहा जाएगा) क्या तुम ने अपने ईमान के बाद कुफ किया? तो अब अज़ाब चखो क्यों कि तुम कुफ़ करते थे| (106) 

और अलबत्ता जिन लोगों के चेहरे सफ़ेद होंगे वह अल्लाह की रहमत में होंगे, वह उस में हमेशा रहेंगे| (107) 

यह अल्लाह की आयात है, हम आप पर ठीक ठीक पढ़ते हैं, और अल्लाह जहान वालों पर कोई जुल्म नहीं चाहता। (108)

और अल्लाह के लिए है जो आस्मानों और ज़मीन में है, और तमाम काम अल्लाह की तरफ़ लौटाए जाएंगे| (109)

तुम बेहतरीन उम्मत हो जो लोगों के लिए भेजी गई (पैदा की गई) तुम अच्छे कामों का हुक्म करते हो और बुरे कामों से मना करते हो और अल्लाह पर ईमान लाते हो, और अगर अहले किताब ईमान ले आते तो उन के लिए बेहतर था, उन में (कुछ) ईमान वाले हैं और उन में से अक्सर नाफरमान हैं। (110)

वह सताने के सिवा तुम्हारा हरगिज़ कुछ न बिगाड़ सकेंगे, और अगर वह तुम से लड़ेंगे तो वह तुम्हें पीठ दिखाएंगे, फिर उन की मदद न होगी, (111)

उन पर ज़िल्लत चस्पा कर दी गई जहां कहीं वह पाए जाएं सिवाए उस के कि अल्लाह के अहद में आ जाएं और लोगों के अहद में, वह लौटे अल्लाह के ग़ज़ब के साथ और उन पर चस्पां कर दी गई मोहताजी, यह इस लिए कि वह अल्लाह की आयात का इनकार करते थे और नबियों को नाहक़ क़त्ल करते थे, यह इस लिए (था) कि उन्हों ने नाफरमानी की और वह हद से बढ़ जाते थे| (112)

अहले किताब में सब बराबर नहीं, एक जमाअत (सीधी राह पर) काइम है और रात के औकात में अल्लाह की आयात पढ़ते हैं और वह सिजदा करते हैं। (113)

वह ईमान रखते हैं अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर और वह अच्छी बात का हुक्म करते हैं और बुरे काम से रोकते हैं और वह नेक कामों में दौड़ते हैं, और यही लोग नेकोकारों में से हैं। (114) 

और वह जो करेंगे कोई नेकी तो हरगिज़ उस की नाद्री न होगी, और अल्लाह परहेज़गारों को जानने वाला है। (115)

बेशक जिन लोगों ने कुफ़ किया, हरगिज़ अल्लाह के आगे उन के माल और न उन की औलाद कुछ भी काम आएंगे, और यही लोग दोज़ख़ वाले हैं, वह उस में हमेशा रहेंगे| (116) 

उन की मिसाल जो ख़र्च करते हैं इस दुनिया में ऐसी है जैसे हवा हो, उस में पाला हो, वह जा लगे खेती को उस कौम की जिन्हों ने अपनी जानों पर जुल्म किया, फिर उस को तबाह कर दे, अल्लाह ने उन पर जुल्म नहीं किया बल्कि वह अपनी जानों पर खुद जुल्म करते हैं। (117) 

ऐ ईमान वालो! अपनों के सिवा किसी को राज़दार न बनाओ, वह तुम्हारी ख़राबी में कमी नहीं करते, वह चाहते हैं कि तुम तकलीफ़ पाओ, (उन की) दुश्मनी जाहिर हो चुकी है उन के मुँह से, और जो उन के सीनों में छुपा हुआ है वह (उस से भी बड़ा है, हम ने तुम्हारे लिए आयात खोल कर बयान कर दी हैं अगर तुम अक्ल रखते हो। (118) 

सुन लो! तुम वह लोग हो जो उन को दोस्त रखते हो और वह तुम्हें दोस्त नहीं रखते और तुम सब किताबों पर ईमान रखते हो, और जब तुम से मिलते हैं तो कहते हैं हम ईमान लाए, और जब अकेले होते हैं तो वह तुम पर गुस्से से उंगलियां चबाते हैं, कह दीजिए! तुम अपने गुस्से में मर जाओ, बेशक अल्लाह दिल की बातों को (खूब) जानने वाला है। (119) 

अगर तुम्हें कोई भलाई पहुँचे तो उन्हें बुरी लगती है, और अगर तुम्हें कोई बुराई पहुँचे तो वह उस से खुश होते हैं, और अगर तुम सबर करो और परहेज़गारी करो, तुम्हारा न बिगाड़ सकेगा उन का फ़रेब कुछ भी, बेशक जो कुछ वह करते हैं अल्लाह उसे घेरे हुए है। (120) 

और जब आप सुबह सवेरे निकले अपने घर से, मोमिनों को जंग के मोचौँ पर बिठाने लगे, और अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। (121)


जब तुम में से दो गिरोहों ने इरादा किया कि हिम्मत हार दें, और अल्लाह उन का मददगार था, और अल्लाह पर चाहिए कि मोमिन भरोसा करें। (122)

और अलबत्ता अल्लाह तुम्हारी बद्र में मदद कर चुका है जबकि तुम कमज़ोर (समझे जाते) थे, तो अल्लाह से डरो ताकि तुम शुक्रगुज़ार हो। (123) 

जब आप मोमिनों को कहते थे क्या तुम्हारे लिए यह काफ़ी नहीं कि तुम्हारा रब तुम्हारी मदद करे तीन हज़ार फ़रिश्तों से उतारे हुए। (124)

क्यों नहीं अगर तुम सबर करो और परहेज़गारी करो, और वह (दुश्मन) तुम पर चढ़ आएं तो फ़ौरन तुम्हारा रब तुम्हारी मदद करेगा पाँच हज़ार निशान ज़दा फ़रिश्तों से| (125)

और यह अल्लाह ने सिर्फ तुम्हारी खुशख़बरी के लिए किया और इस लिए कि उस से तुम्हारे दिलों को इत्मीनान हो, और नहीं मदद मगर (सिर्फ) अल्लाह के पास से है जो गालिब, हिक्मत वाला है। (126)

ताकि वह उन लोगों के एक गिरोह को काट डाले जिन्हों ने कुफ़ किया या उन्हें ज़लील कर दे तो वह नामुराद लौट जाएं। (127)

आप (स) का इस में दखल नहीं कुछ भी, ख़ाह (अल्लाह) उन की तौबा कुबूल करे या उन्हें अज़ाब दे क्यों कि वह ज़ालिम हैं। (128)

और अल्लाह ही के लिए है जो आस्मानों में और जो जमीन में है, और जिस को चाहे बख्श दे और अज़ाब दे जिस को चाहे, और अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है। (129)

ईमान वालो! न खाओ सूद दुगना चौगना, और अल्लाह से डरो ताकि तुम फलाह पाओ। (130) 

और डरो उस आग से जो काफ़िरों के लिए तैयार की गई है। (131) 

और तुम अल्लाह और रसूल (स) का हुक्म मानो ताकि तुम पर रहम किया जाए। (132)


और दौड़ो अपने रब की बखुशिश और जन्नत की तरफ जिस का अर्ज आस्मानों और जमीन (के बराबर) है, तैयार की गई है परहेज़गारों के लिए| (133)

जो ख़र्च करते हैं खुशी (खुशहाली) और तकलीफ़ में और पी जाते हैं गुस्सा और माफ़ कर देते हैं लोगों को, और अल्लाह दोस्त रखता है एहसान करने वालों को। (134)

और वह लोग जो बेहयाई करें या अपने तईं कोई जुल्म कर बैठे तो वह अल्लाह को याद करें, फिर अपने गुनाहों के लिए बखशिश मांगें, और कौन गुनाह बख़्शता है अल्लाह के सिवा? और जो उन्हों ने (ग़लत) किया उस पर जानते बूझजे न अड़ें। (135)

ऐसे ही लोगों की जज़ा उन के रब की तरफ़ से बशिश और बागात हैं जिन के नीचे बहती हैं नहरें, वह उन में हमेशा रहेंगे, और कैसा अच्छा बदला है काम करने वालों का! (136) 

गुज़र चुके हैं तुम से पहले तरीके (वाकिआत) तो ज़मीन में चलो फिरो, फिर देखो कैसा अन्जाम हुआ झुटलाने वालों का! (137) 

यह बयान है लोगों के लिए और हिदायत और नसीहत परहेज़गारों के लिए। (138)

और तुम सुस्त न पड़ो और गम न खाओ, और तुम ही गालिब रहोगे अगर तुम ईमान वाले हो। (139)

अगर तुम को ज़ख्म पहुँचा तो अलबत्ता पहुँचा है उस कौम को (भी) उस जैसा ही ज़ख्म, और यह (खुशी और गम के) दिन है जो हम लोगों के दरमियान बारी बारी बदलते रहते हैं, और ताकि अल्लाह मालूम कर ले उन लोगों को जो ईमान लाए और तुम में से (बाज़ को) शहीद बनाए (दरजए शहादत दे), और अल्लाह ज़ालिमों को दोस्त नहीं रखता। (140)

और ताकि अल्लाह पाक साफ़ कर दे उन लोगों को जो ईमान लाए और मिटा दे काफ़िरों को| (141)

क्या तुम यह समझते हो कि तुम जन्नत में दाखिल हो जाओगे और अभी अल्लाह ने मालूम नहीं किया (इतिहान नहीं लिया) कि कौन तुम में से जिहाद करने वाले हैं और सबर करने वाले हैं। (142) 

और अलबत्ता तुम मौत से मिलने से कब्ल उस की तमन्ना करते थे, तो अब तुम ने उसे (मौत को) देख लिया और तुम उसे (अपनी आँखों से) देख रहे हो। (143)

और मुहम्मद (स) तो एक रसूल हैं, अलबत्ता गुज़र चुके हैं उन से पहले बहुत से रसूल, फिर अगर वह वफ़ात पा लें या क़त्ल हो जाएं तो क्या तुम अपनी एड़ियों पर (उलटे पाऊँ) लौट जाओगे? और जो अपनी एड़ियों पर (उलटे पाऊँ) फिर जाए तो वह हरगिज़ अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, और अल्लाह जल्द जज़ा देगा शुक्र करने वालों को| (144)

और किसी शख्स के लिए (मुमकिन) नहीं कि वह अल्लाह के हुक्म के बगैर मर जाए, लिखा हुआ है एक मुकर्ररा वक्त, और जो दुनिया का इन आम चाहेगा हम उसे उस में से दे देंगे, और जो चाहेगा आख़िरत का बदला हम उसे उस में से देंगे, और हम शुक्र करने वालों को जल्द जज़ा देंगे। (145) 

और बहुत से नबी (हुए हैं) उन के साथ (मिल कर) बहुत से अल्लाह वाले लड़े, पर वह सुस्त न पड़े (उन मुसीबतों) के सबब जो उन्हें अल्लाह की राह में पहुँची और न उन्हों ने कमजोरी (जाहिर की और न दब गए, और अल्लाह सबर करने वालों को दोस्त रखता है। (146)

और उन का कहना न था उस के सिवाए कि उन्हों ने दुआ की: ऐ हमारे रब! हमें बख्शदे हमारे गुनाह, और हमारी ज़ियादती हमारे काम में, और साबित रख हमारे क़दम और काफ़िरों की क़ौम पर हमारी मदद फ़रमा। (147)

तो अल्लाह ने उन्हें इन आम दिया दुनिया का और आख़िरत का अच्छा इन् आम, और अल्लाह एहसान करने वालों को दोस्त रखता है। (148)

ऐ ईमान वालो! अगर तुम काफ़िरों का कहा मानोगे तो वह तुम्हें एड़ियों पर (उलटे पाऊँ) फेर देंगे फिर तुम घाटे में पलट जाओगे| (149)

बल्कि अल्लाह तुम्हारा मददगार है और वह सब से बेहतर मददगार है। (150) 

हम अनक़रीब काफ़िरों के दिलों में रुअब डाल देंगे इस लिए कि उन्हों ने अल्लाह का शरीक किया जिस की उस ने कोई सनद नहीं उतारी, और उन का ठिकाना दोज़ख़ है, और बुरा ठिकाना है ज़ालिमों का| (151)

और अलबत्ता अल्लाह ने तुम से अपना वादा सच्चा कर दिखाया जब तुम उन्हें उस के हुक्म से क़त्ल करने लगे यहां तक कि जब तुम ने बुज़दिली की और काम में झगड़ा किया और उस के बाद नाफ़रमानी की जबकि तुम्हें दिखाया जो तुम चाहते थे, तुम में से कोई दुनिया चाहता था और तुम में से कोई आख़िरत चाहता था, फिर उस ने तुम्हें उन से पस्पा कर दिया ताकि तुम्हें आज़माए, और तहक़ीक़ उस ने तुम्हें माफ़ कर दिया, और अल्लाह मोमिनों पर फज्ल करने वाला है। (152)

जब तुम (मुँह उठा कर) चढ़ते जाते थे और किसी को पीछे मुड़ कर न देखते थे और रसूल (स) तुम्हारे पीछे से तुम्हें पुकारते थे, फिर तुम्हें गम पर गम पहुँचा ताकि तुम रंज न करो उस पर जो (तुम्हारे हाथ से) निकल गया और न (उस पर) जो तुम्हें पेश आए, और अल्लाह उस से बाख़बर है जो तुम करते हो। (153)

तो अल्लाह ने उन्हें इन आम दिया दुनिया का और आख़िरत का अच्छा इन् आम, और अल्लाह एहसान करने वालों को दोस्त रखता है। (148)

ऐ ईमान वालो! अगर तुम काफ़िरों का कहा मानोगे तो वह तुम्हें एड़ियों पर (उलटे पाऊँ) फेर देंगे फिर तुम घाटे में पलट जाओगे| (149)

बल्कि अल्लाह तुम्हारा मददगार है और वह सब से बेहतर मददगार है। (150) 

हम अनक़रीब काफ़िरों के दिलों में रुअब डाल देंगे इस लिए कि उन्हों ने अल्लाह का शरीक किया जिस की उस ने कोई सनद नहीं उतारी, और उन का ठिकाना दोज़ख़ है, और बुरा ठिकाना है ज़ालिमों का| (151)

और अलबत्ता अल्लाह ने तुम से अपना वादा सच्चा कर दिखाया जब तुम उन्हें उस के हुक्म से क़त्ल करने लगे यहां तक कि जब तुम ने बुज़दिली की और काम में झगड़ा किया और उस के बाद नाफ़रमानी की जबकि तुम्हें दिखाया जो तुम चाहते थे, तुम में से कोई दुनिया चाहता था और तुम में से कोई आख़िरत चाहता था, फिर उस ने तुम्हें उन से पस्पा कर दिया ताकि तुम्हें आज़माए, और तहक़ीक़ उस ने तुम्हें माफ़ कर दिया, और अल्लाह मोमिनों पर फज्ल करने वाला है। (152)

जब तुम (मुँह उठा कर) चढ़ते जाते थे और किसी को पीछे मुड़ कर न देखते थे और रसूल (स) तुम्हारे पीछे से तुम्हें पुकारते थे, फिर तुम्हें गम पर गम पहुँचा ताकि तुम रंज न करो उस पर जो (तुम्हारे हाथ से) निकल गया और न (उस पर) जो तुम्हें पेश आए, और अल्लाह उस से बाख़बर है जो तुम करते हो। (153)


फिर उस ने तुम पर गम के बाद अमन ऊंघ (की सूरत में) उतारी, एक जमाअत को ढाँक लिया तुम में से, और एक जमाअत को अपनी जान की फ़िक्र पड़ी थी, वह अल्लाह के बारे में बे हक़ीक़त गुमान करते थे जाहिलियत के गुमान, वह कहते थे क्या कोई काम कुछ हमारे लिए (हमारे इख़तियार में) है? आप (स) कह दें, कि तमाम काम अल्लाह के लिए (अल्लाह के इलतियार में) है, वह अपने दिलों में छुपाते हैं जो आप के लिए (आप पर) जाहिर नहीं करते, वह कहते हैं अगर कुछ काम हमारे लिए (हमारे इख़तियार में) होता तो हम यहां न मारे जाते, आप कह दें अगर तुम अपने घरों में होते तो जिन पर (जिन की किस्मत में) मारा जाना लिखा था वह ज़रूर निकल खड़े होते अपनी क़त्लगाहों की तरफ़, ताकि अल्लाह आजमाए जो तुम्हारे सीनों में है, और ताकि साफ़ कर दे जो तुम्हारे दिलों में है, और अल्लाह दिलों के भेद खूब जानने वाला है। (154) 

बेशक जो लोग तुम में से पीठ फेर गए जिस दिन दो जमाअतें आमने सामने हुईं, दरहक़ीक़त उन्हें शैतान ने फिसलाया उन के बाज़ आमाल की वजह से, और अलबत्ता अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया, बेशक अल्लाह बख्शने वाला बुर्दबार है। (155) 

ऐ ईमान वालो! तुम उन लोगों की तरह न हो जाओ जो काफ़िर हुए और वह कहते हैं अपने भाइयों को जब वह सफ़र करें ज़मीन में या जंग में शरीक हों, अगर वह होते हमारे पास तो वह न मरते और न मारे जाते, ताकि अल्लाह उस को हसत बना दे उन के दिलों में, और अल्लाह (ही) ज़िन्दा करता है और मारता है, और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह देखने वाला है। (156) 

और अगर तुम अल्लाह की राह में मारे जाओ या तुम मर जाओ तो यक़ीनन बखुशिश और रहमत है अल्लाह की तरफ़ से, (यह) उस से बेहतर है जो वह (दौलत) जमा करते हैं। (157)

और अगर तुम मर गए या मार दिए गए तो यकीनन अल्लाह की तरफ़ इकटठे किए जाओगे| (158) 

पर अल्लाह की रहमत (ही) से है कि आप (स) उन के लिए नरम दिल हैं, और अगर तुन्दखू सख्त दिल होते तो वह आप (स) के पास से मुन्तशिर हो जाते, पर आप (स) माफ़ कर दें उन्हें और उन के लिए बखुशिश मांगें, और काम में उन से मशवरा कर लिया करें, फिर जब आप (स) (पुख्ता) इरादा कर लें तो अल्लाह पर भरोसा करें, बेशक अल्लाह भरोसा करने वालों को दोस्त रखता है। (159) 

अगर अल्लाह तुम्हारी मदद करे तो तुम पर कोई ग़ालिब आने वाला नहीं, और अगर वह तुम्हें छोड़ दे तो कौन है जो तुम्हारी मदद करे उस के बाद, और चाहिए कि ईमान वाले अल्लाह पर भरोसा करें। (160) 

और नबी के लिए (शायान) नहीं कि वह छुपाए, और जो छुपाएगा वह अपनी छुपाई हुई चीज़ क़ियामत के दिन लाएगा, फिर पूरा पूरा पाएगा हर शख्स जो उस ने कमाया (अमल किया) और वह जुल्म नहीं किए जाएंगे। (161) 

तो क्या जिस ने पैरवी की रजाए इलाही (अल्लाह की खुशनूदी की) उस के मानिन्द है जो अल्लाह के गुस्से के साथ लौटा? और उस का ठिकाना जहन्नम है, और (बहुत) बुरा ठिकाना है। (162) 

उन के (मुखतलिफ़) दरजे हैं अल्लाह के पास, और वह जो कुछ करते हैं अल्लाह देखने वाला है। (163) 

बेशक अल्लाह ने ईमान वालों (मोमिनों) पर एहसान किया जब उन में एक रसूल (स) भेजा उन में से, वह उन पर उस की आयतें पढ़ता है, और उन्हें पाक करता है, और उन्हें किताब ओ हिक्मत सिखाता है, और बेशक वह उस से कब्ल अलबत्ता खुली गुमराही में थे| (164) 

क्या जब तुम्हें पहुँची कोई मुसीबत, अलबत्ता तुम उस से दो चंद पहुँचा चुके थे, तुम कहते हो यह कहां से आई? आप कह दें वह तुम्हारे अपने (ही) पास से, बेशक अल्लाह हर चीज़ पर कादिर है। (165)

और तुम्हें जो (तक्लीफ़) पहुँची जिस दिन दो जमाअतों में मुडभेड़ हुई तो अल्लाह के हुक्म से (पहुँची) ताकि वह मालूम कर ले ईमान वालों को| (166) 

और ताकि जान ले उन लोगों को जो मुनाफ़िक़ हुए, और उन्हें कहा गयाः आओ! अल्लाह की राह में लड़ो या दिफ़ा करो, तो वह बोले अगर हम जंग जानते तो ज़रूर तुम्हारा साथ देते, वह उस दिन कुफ़ से ज़ियादा करीब थे ब निसबत ईमान के, वह अपने मुँह से कहते हैं जो उन के दिलों में नहीं, और अल्लाह खूब जानने वाला है जो वह छुपाते हैं। (167) 

वह लोग जिन्हों ने अपने भाइयों के बारे में कहा और खुद बैठे रहे अगर वह हमारी बात मानते तो वह न मारे जाते, कह दीजिए! तुम अपनी जानों से मौत को हटा दो अगर तुम सच्चे हो| (168) 

जो लोग अल्लाह की राह में मारे गए उन्हें हरगिज़ ख़याल न करो मुर्दा, बल्कि वह जिन्दा हैं अपने रब के पास से वह रिज़क़ पाते हैं। (169) 

खूश हैं उस से जो अल्लाह ने उन्हें अपने फज्ल से दिया, और वह उन लोगों की तरफ़ से खुश वक्त हैं जो नहीं मिले उन से उन के पीछे, उन पर न कोई ख़ौफ़ है और न वह गमगीन होंगे। (170) 

वह खुशियां मना रहे हैं अल्लाह की नेमत और फज्ल से, और यह कि अल्लाह ज़ाया नहीं करता ईमान वालों का अजर| (171) 

जिन लोगों ने अल्लाह और उस के रसूल का (हुक्म) कुबूल किया उस के बाद कि उन्हें जख्म पहुँचा, उन में से जिन लोगों ने नेकी और परहेज़गारी की उन के लिए बड़ा अजर है। (172) 

जिन्हें लोगों ने कहा कि लोगों ने तुम्हारे (मुकाबले के लिए सामान) जमा कर लिया है, पर उन से डरो तो उन का ईमान ज़ियादा हुआ, और उन्हों ने कहा हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वह कैसा अच्छा कारसाज़ है! (173)

फिर वह लौटे अल्लाह की नेमत और फज्ल के साथ, उन्हें कोई बुराई न पहुँची, और उन्हों ने पैरवी की रज़ाए इलाही की, और अल्लाह बड़े फज्ल वाला है। (174) 

इस के सिवा नहीं कि शैतान तुम्हें डराता है अपने दोस्तों से, सो तुम उन से न डरो और मुझ से डरो अगर तुम ईमान वाले हो। (175) 

और आप को गमगीन न करें वह लोग जो कुफ़ में दौड़ धूप करते हैं, यक़ीनन वह हरगिज़ अल्लाह का न बिगाड़ सकेंगे कुछ, अल्लाह चाहता है कि उन को आख़िरत में कोई हिस्सा न दे, और उन के लिए अज़ाब है बड़ा। (176) 

बेशक जिन लोगों ने ईमान के बदले कुफ़ मोल लिया वह हरगिज़ नहीं बिगाड़ सकते अल्लाह का कुछ, और उन के लिए दर्दनाक अज़ाब है। (177) 

और जिन लोगों ने कुफ़ किया वह हरगिज़ गुमान न करें कि हम जो उन्हें ढील दे रहे हैं यह उन के लिए बेहतर है, दरहक़ीक़त हम उन्हें ढील देते हैं ताकि वह गुनाह में बढ़ जाएं, और उन के लिए ज़लील करने वाला अज़ाब है। (178) 

अल्लाह (ऐसा) नहीं है कि ईमान वालों को (इस हाल पर छोड़ दे जिस पर तुम हो यहां तक कि नापाक को पाक से जुदा कर दे, और अल्लाह (ऐसा) नहीं है कि तुम्हें गैब की खबर दे, लेकिन अल्लाह अपने रसूलों में से जिस को चाहे चुन लेता है, तो तुम अल्लाह और उस के रसूलों पर ईमान लाओ, और अगर तुम ईमान लाओ और परहेज़गारी करो तो तुम्हारे लिए बड़ा अजर है। (179) 

और वह लोग हरगिज़ यह ख़याल न करें जो उस (माल) में बुखल करते हैं जो अल्लाह ने अपने फज्ल से उन्हें दिया कि वह बेहतर है उन के लिए, बल्कि वह उन के लिए बुरा है, जिस (माल) में उन्हों ने बखल किया अनकरीब कियामत के दिन तौक़ (बना कर) पहनाया जाएगा, और अल्लाह ही वारिस है आस्मानों का और ज़मीन का, और जो तुम करते हो अल्लाह उस से बाख़बर है। (180)

अलबत्ता अल्लाह ने उन की बात सुन ली जिन लोगों ने कहा कि अल्लाह फ़कीर है और हम मालदार हैं। अब हम लिख रखेंगे जो उन्हों ने कहा और उन का नबियों को नाहक़ क़त्ल करना, और कहेंगे: चखो जलाने वाला अजाब। (181)

यह उस का बदला है जो तुम्हारे हाथों ने आगे भेजा और यह कि अल्लाह बन्दों पर जुल्म करने वाला नहीं। (182)

जिन लोगों ने कहा कि अल्लाह ने हम से अहद कर रखा है कि हम किसी रसूल पर ईमान न लाएं यहां तक कि वह हमारे पास कुरबानी लाए जिसे आग खा ले, आप (स) कह दें अलबत्ता तुम्हारे पास मुझ से पहले बहुत से रसूल आए निशानियों के साथ और उस के साथ भी जो तुम कहते हो, फिर क्यों तुम ने उन्हें क़त्ल किया अगर तुम सच्चे हो, (183)

फिर अगर वह आप को झुटलाएं तो अलबत्ता झुटलाए गए हैं आप (स) से पहले बहुत से रसूल जो आए खुली निशानियों के साथ, और सहीफ़ और रौशन किताब (ले कर)। (184)

हर जान को मौत (का जाइका) चखना है, और क़ियामत के दिन तुम्हारे अजर पूरे पूरे मिलेंगे, फिर जो कोई दोज़ख़ से दूर किया गया और जन्नत में दाखिल किया गया पर वह मुराद को पहुँचा, और दुनिया की ज़िन्दगी (कुछ) नहीं एक धोके के सौदे के सिवा| (185)

तुम अपने मालों और अपनी जानों में ज़रूर आजमाए जाओगे, और तुम ज़रूर सुनोगे उन लोगों से जिन्हें तुम से पहले किताब दी गई और मुश्रिकों से (भी) दुख देने वाली (बातें) बहुत सी, और अगर तुम सबर करो और परहेज़गारी करो तो बेशक यह बड़े हिम्मत के कामों में से है। (186)

और (याद करो) जब अल्लाह ने अहले किताब से अहद लिया कि तुम उसे लोगों के लिए ज़रूर बयान करना और न उसे छुपाना, उन्हों ने उसे अपनी पीठ पीछे फेंक दिया और उस के बदले थोड़ी कीमत हासिल की, तो कितना बुरा है जो वह ख़रीदते हैं! (187)

आप हरगिज़ न समझें जो लोग खुश होते हैं जो उन्हों ने किया (अपने किए पर) और चाहते हैं कि उस पर उन की तारीफ़ की जाए जो उन्हों ने नहीं किया, पर आप (स) उन्हें रिहा शुदा न समझें अज़ाब से, और उन के लिए दर्दनाक अज़ाब है। (188)

और अल्लह के लिए है बादशाहत आस्मानों की और जमीन की, और अल्लाह हर शै पर कदिर है। (189)

बेशक पैदाइश में आस्मानों की और जमीन की, और रात दिन के आने जाने में अक्ल वालों के लिए निशानियां हैं। (190)

जो लोग अल्लाह को खड़े और बैठे और अपनी करवटों पर याद करते हैं, और गौर करते हैं आस्मानों की और ज़मीन की पैदाइश में, ऐ हमारे रब! तू ने यह बेमकसद पैदा नहीं किया, तू पाक है, तू बचा ले हमें दोज़ख़ के अज़ाब से| (191)

ऐ हमारे रब! तू ने जिस को दोज़ख़ में दाखिल किया तो ज़रूर तू ने उस को रुसवा किया, और ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं। (192)

ऐ हमारे रब! बेशक हम ने एक पुकारने वाले को सुना जो ईमान की तरफ़ पुकारता है कि अपने रब पर ईमान ले आओ, सो हम ईमान लाए, ऐ हमारे रब! तो हमें बख्श दे हमारे गुनाह, और हम से हमारी बुराइयां दूर कर दे, और हमें नेकों के साथ मौत दे| (193)

ऐ हमारे रब! और हमें दे जो तू ने अपने रस्लों के जरीए हम से वादा किया और हमें कियामत के दिन रुसवा न कर, बेशक _ तू नहीं ख़िलाफ़ करता (अपना) वादा। (194)

पर उन के रव ने (उन की दुआ) कुबूल की कि मैं किसी मेहनत करने वाले की मेहनत जाया नहीं - करता तुम में से मर्द हो या औरत, तुम आपस में (एक हो), सो जिन लोगों ने हिजत की और अपने - शहरों से निकाले गए, और मेरी राह में सताए गए और लड़े और - मारे गए, मैं उन की बुराइयां उन से ज़रूर दूर करदूंगा और उन्हें बागात में दाखिल करूँगा, बहती हैं जिन के नीचे नहरें, (यह) अल्लाह की तरफ़ से सवाब है, और अल्लाह के पास अच्छा सवाब है। (195)

शहरों में काफ़िरों का चलना फिरना आप (स) को धोका न दे। (196) 

(यह) थोड़ा सा फाइदा है, फिर उन - का ठिकाना दोज़ख़ है, और वह कितनी बुरी आराम गाह है? (197)

जो लोग अपने रब से डरते रहे उन - के लिए बागात हैं जिन के नीचे नहरें बहती है, वह उस में हमेशा रहेंगे, मेहमानी है अल्लाह के पास से, और जो अल्लाह के पास है नेक लोगों के लिए बेहतर है। (198)

और बेशक अहले किताब में से _बाज़ वह है जो ईमान लाए हैं अल्लाह पर और जो तुम्हारी तरफ़ - नाज़िल किया गया और जो उन की तरफ नाज़िल किया गया, अल्लाह

के आगे आजिजी करते हैं, अल्लाह - की आयतों के बदले थोड़ा मोल नहीं लेते, यही लोग हैं उन के - लिए उन के रब के पास अजर है, बेशक अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। (199)

ऐ ईमान वालो! तुम सब करो, और मुकाबले में मजबूत रहो, और जंग की तैयारी करो, और अल्लाह - से डरो, ताकि तुम मुराद को पहुंची। (200)

***
3. FAMILY OF IMRAN

(Ali 'Imran)

In the name of God, the Gracious, the Merciful.

1. Alif, Lam, Meem.


2. God, there is no god but He, the Living, the Eternal.


3. He sent down to you the Book with the Truth, confirming what came before it; and He sent down the Torah and the Gospel.


4. Aforetime, as guidance for mankind; and He sent down the Criterion. Those who have rejected God’s signs will have a severe punishment. God is Mighty, Able to take revenge.


5. Nothing is hidden from God, on earth or in the heaven.


6. It is He who forms you in the wombs as He wills. There is no god except He, the Almighty, the Wise.


7. It is He who revealed to you the Book. Some of its verses are definitive; they are the foundation of the Book, and others are unspecific. As for those in whose hearts is deviation, they follow the unspecific part, seeking descent, and seeking to derive an interpretation. But none knows its interpretation except God and those firmly rooted in knowledge say, “We believe in it; all is from our Lord.” But none recollects except those with understanding.


8. “Our Lord, do not cause our hearts to swerve after You have guided us, and bestow on us mercy from Your presence; You are the Giver.”


9. “Our Lord, You will gather the people for a Day in which there is no doubt.” God will never break His promise.


10. As for those who disbelieve, neither their wealth nor their children will avail them anything against God. These will be fuel for the Fire.


11. Like the behavior of Pharaoh’s people and those before them. They rejected Our signs, so God seized them for their sins. God is Strict in retribution.


12. Say to those who disbelieve, “You will be defeated, and rounded up into Hell—an awful resting-place.”


13. There was a sign for you in the two parties that met. One party fighting in the way of God, and the other was disbelieving. They saw them with their own eyes twice their number. But God supports with His help whomever He wills. In that is a lesson for those with insight.


14. Adorned for the people is the love of desires, such as women, and children, and piles upon piles of gold and silver, and branded horses, and livestock, and fields. These are the conveniences of the worldly life, but with God lies the finest resort.


15. Say, “Shall I inform you of something better than that? For those who are righteous, with their Lord are Gardens beneath which rivers flow, where they will remain forever, and purified spouses, and acceptance from God.” God is Observant of the servants.


16. Those who say, “Our Lord, we have believed, so forgive us our sins, and save us from the suffering of the Fire.”


17. The patient, and the truthful, and the reverent, and the charitable, and the seekers of forgiveness at dawn.


18. God bears witness that there is no god but He, as do the angels, and those endowed with knowledge—upholding justice. There is no god but He, the Mighty, the Wise.


19. Religion with God is Islam. Those to whom the Scripture was given differed only after knowledge came to them, out of envy among themselves. Whoever rejects the signs of God—God is quick to take account.


20. If they argue with you, say, “I have surrendered myself to God, and those who follow me.” And say to those who were given the Scripture, and to the unlearned, “Have you surrendered?” If they have surrendered, then they are guided, but if they turn away, then your duty is to convey. God is Seeing of the servants.


21. As for those who defy God’s revelations, and kill the prophets unjustly, and kill those who advocate justice among the people, promise them a painful retribution.


22. They are those whose deeds will come to nothing, in this world and in the Hereafter, and they will have no saviors.


23. Have you not considered those who were given a share of the Scripture, as they were called to the Scripture of God to arbitrate between them; then some of them turned back, and declined?


24. That is because they said, “The Fire will not touch us except for a limited number of days.” They have been misled in their religion by the lies they fabricated.


25. How about when We gather them for a Day in which there is no doubt, and each soul will be paid in full for what it has earned, and they will not be wronged?


26. Say, “O God, Owner of Sovereignty. You grant sovereignty to whom You will, and You strip sovereignty from whom you will. You honor whom you will, and You humiliate whom you will. In Your hand is all goodness. You are Capable of all things.”


27. “You merge the night into the day, and You merge the day into the night; and you bring the living out of the dead, and You bring the dead out of the living; and you provide for whom you will without measure.”


28. Believers are not to take disbelievers for friends instead of believers. Whoever does that has nothing to do with God, unless it is to protect your own selves against them. God warns you to beware of Him. To God is the destiny.


29. Say, “Whether you conceal what is in your hearts, or disclose it, God knows it.” He knows everything in the heavens and the earth. God is Powerful over everything.


30. On the Day when every soul finds all the good it has done presented. And as for the evil it has done, it will wish there were a great distance between them. God cautions you of Himself. God is Kind towards the servants.


31. Say, “If you love God, then follow me, and God will love you, and will forgive you your sins.” God is Forgiving and Merciful.


32. Say, “Obey God and the Messenger.” But if they turn away—God does not love the faithless.


33. God chose Adam, and Noah, and the family of Abraham, and the family of Imran, over all mankind.


34. Offspring one of the other. God is Hearer and Knower.


35. The wife of Imran said, “My Lord, I have vowed to You what is in my womb, dedicated, so accept from me; You are the Hearer and Knower.”


36. And when she delivered her, she said, “My Lord, I have delivered a female,” and God was well aware of what she has delivered, “and the male is not like the female, and I have named her Mary, and have commended her and her descendants to Your protection, from Satan the outcast.”


37. Her Lord accepted her with a gracious reception, and brought her a beautiful upbringing, and entrusted her to the care of Zechariah. Whenever Zechariah entered upon her in the sanctuary, he found her with provision. He said, “O Mary, where did you get this from?” She said, “It is from God; God provides to whom He wills without reckoning.”


38. Thereupon Zechariah prayed to his Lord; he said, “My Lord, bestow on me good offspring from Your presence; You are the Hearer of Prayers.”


39. Then the angels called out to him, as he stood praying in the sanctuary: “God gives you good news of John; confirming a Word from God, and honorable, and moral, and a prophet; one of the upright.”


40. He said, “My Lord, how will I have a son, when old age has overtaken me, and my wife is barren?” He said, “Even so, God does whatever He wills.”


41. He said, “My Lord, give me a sign.” He said, “Your sign is that you shall not speak to the people for three days, except by gestures. And remember your Lord much, and praise in the evening and the morning.”


42. The angels said, “O Mary, God has chosen you, and has purified you. He has chosen you over all the women of the world.


43. “O Mary, be devoted to your Lord, and bow down, and kneel with those who kneel.”


44. These are accounts from the Unseen, which We reveal to you. You were not with them when they cast their lots as to which of them would take charge of Mary; nor were you with them as they quarreled.


45. The Angels said, “O Mary, God gives you good news of a Word from Him. His name is the Messiah, Jesus, son of Mary, well-esteemed in this world and the next, and one of the nearest.


46. He will speak to the people from the crib, and in adulthood, and will be one of the righteous.”


47. She said, “My Lord, how can I have a child, when no man has touched me?” He said, “It will be so. God creates whatever He wills. To have anything done, He only says to it, ‘Be,’ and it is.”


48. And He will teach him the Scripture and wisdom, and the Torah and the Gospel.


49. A messenger to the Children of Israel: “I have come to you with a sign from your Lord. I make for you out of clay the figure of a bird, then I breathe into it, and it becomes a bird by God’s leave. And I heal the blind and the leprous, and I revive the dead, by God’s leave. And I inform you concerning what you eat, and what you store in your homes. In that is a sign for you, if you are believers.”


50. “And verifying what lies before me of the Torah, and to make lawful for you some of what was forbidden to you. I have come to you with a sign from your Lord; so fear God, and obey me.”


51. “God is my Lord and your Lord, so worship Him. That is a straight path.”


52. When Jesus sensed disbelief on their part, he said, “Who are my allies towards God?” The disciples said, “We are God’s allies; we have believed in God, and bear witness that we submit.”


53. “Our Lord, we have believed in what You have revealed, and we have followed the Messenger, so count us among the witnesses.”


54. They planned, and God planned; but God is the Best of planners.


55. God said, “O Jesus, I am terminating your life, and raising you to Me, and clearing you of those who disbelieve. And I will make those who follow you superior to those who disbelieve, until the Day of Resurrection. Then to Me is your return; then I will judge between you regarding what you were disputing.


56. As for those who disbelieve, I will punish them with a severe punishment, in this world and the next, and they will have no helpers.


57. And as for those who believe and do good works, He will give them their rewards in full. God does not love the unjust.”


58. This is what We recite to you of the Verses and the Wise Reminder.


59. The likeness of Jesus in God’s sight is that of Adam: He created him from dust, then said to him, “Be,” and he was.


60. The truth is from your Lord, so do not be of those who doubt.


61. And if anyone disputes with you about him, after the knowledge that has come to you, say, “Come, let us call our children and your children, and our women and your women, and ourselves and yourselves, and let us invoke God’s curse on the liars.”


62. This is the narrative of truth: there is no god but God. God is the Mighty, the Wise.


63. But if they turn away—God knows the corrupt.


64. Say, “O People of the Book, come to terms common between us and you: that we worship none but God, and that we associate nothing with Him, and that none of us takes others as lords besides God.” And if they turn away, say, “Bear witness that we have submitted.”


65. O People of the Book! Why do you argue about Abraham, when the Torah and the Gospel were not revealed until after him? Will you not reason?


66. Here you are—you argue about things you know, but why do you argue about things you do not know? God knows, and you do not know. 67. Abraham was neither a Jew nor a Christian, but he was a Monotheist, a Muslim. And he was not of the Polytheists.


68. The people most deserving of Abraham are those who followed him, and this prophet, and those who believe. God is the Guardian of the believers.


69. A party of the People of the Book would love to lead you astray, but they only lead themselves astray, and they do not realize it.


70. O People of the Book! Why do you reject the revelations of God, even as you witness?


71. O People of the Book! Why do you confound the truth with falsehood, and knowingly conceal the truth?


72. Some of the People of the Book say, “Believe in what was revealed to the believers at the beginning of the day, and reject it at its end, so that they may return.”


73. And trust none except those who follow your religion.” Say, “Guidance is God’s guidance. If someone is given the like of what you were given, or they argue with you before your Lord, say, “All grace is in God’s hand; He gives it to whomever He wills.” God is Bounteous and Knowing.


74. He specifies His mercy for whomever He wills. God is Possessor of Sublime Grace.


75. Among the People of the Book is he, who, if you entrust him with a heap of gold, he will give it back to you. And among them is he, who, if you entrust him with a single coin, he will not give it back to you, unless you keep after him. That is because they say, “We are under no obligation towards the gentiles.” They tell lies about God, and they know it.


76. Indeed, whoever fulfills his commitments and maintains piety—God loves the pious.


77. Those who exchange the covenant of God, and their vows, for a small price, will have no share in the Hereafter; and God will not speak to them, nor will He look at them on the Day of Resurrection, nor will He purify them. They will have a painful punishment.


78. And among them are those who twist the Scripture with their tongues, that you may think it from the Scripture, when it is not from the Scripture. And they say, “It is from God,” when it is not from God. They tell lies and attribute them to God, knowingly.


79. No person to whom God has given the Scripture, and wisdom, and prophethood would ever say to the people, “Be my worshipers rather than God’s.” Rather, “Be people of the Lord, according to the Scripture you teach, and the teachings you learn.”


80. Nor would he command you to take the angels and the prophets as lords. Would he command you to infidelity after you have submitted?


81. God received the covenant of the prophets, “Inasmuch as I have given you of Scripture and wisdom, should a messenger come to you verifying what you have; you shall believe in him, and support him.” He said, “Do you affirm My covenant and take it upon yourselves?” They said, “We affirm it.” He said, “Then bear witness, and I am with you among the witnesses.”


82. Whoever turns away after that—these are the deceitful.


83. Do they desire other than the religion of God, when to Him has submitted everything in the heavens and the earth, willingly or unwillingly, and to Him they will be returned?


84. Say, “We believe in God, and in what was revealed to us, and in what was revealed to Abraham, and Ishmael, and Isaac, and Jacob, and the Patriarchs; and in what was given to Moses, and Jesus, and the prophets from their Lord. We make no distinction between any of them, and to Him we submit.”


85. Whoever seeks other than Islam as a religion, it will not be accepted from him, and in the Hereafter he will be among the losers.


86. How will God guide a people who disbelieved after having believed, and had witnessed that the Messenger is true, and the clear proofs had come to them? God does not guide the unjust people.


87. Those—their penalty is that upon them falls the curse of God, and of the angels, and of all mankind. 88. Remaining in it eternally, without their punishment being eased from them, and without being reprieved.


89. Except those who repent afterwards, and reform; for God is Forgiving and Merciful.


90. As for those who disbelieve after having believed, then plunge deeper into disbelief, their repentance will not be accepted; these are the lost.


91. As for those who disbelieve and die disbelievers, even the earth full of gold would not be accepted from any of them, were he to offer it for ransom. These will have a painful torment, and will have no saviors.


92. You will not attain virtuous conduct until you give of what you cherish. Whatever you give away, God is aware of it.


93. All food was permissible to the Children of Israel, except what Israel forbade for itself before the Torah was revealed. Say, “Bring the Torah, and read it, if you are truthful.”


94. Whoever forges lies about God after that—these are the unjust.


95. Say, “God has spoken the truth, so follow the religion of Abraham, the monotheist; he was not a Pagan.”


96. The first house established for mankind is the one at Bekka, blessed, and guidance for all people.


97. In it are evident signs; the Station of Abraham. Whoever enters it attains security. Pilgrimage to the House is a duty to God for all who can make the journey. But as for those who refuse—God is Independent of the worlds.


98. Say, “O People of the Scripture, why do you reject the Revelations of God, when God witnesses what you do?”


99. Say, “O People of the Scripture, why do you hinder from God’s path those who believe, seeking to distort it, even though you are witnesses? God is not unaware of what you do.”


100. O you who believe! If you obey a party of those who were given the Scripture, they will turn you, after your belief, into disbelievers.


101. And how could you disbelieve, when God’s revelations are being recited to you, and among you is His Messenger? Who ever cleaves to God has been guided to a straight path.


102. O you who believe! Revere God with due reverence, and do not die except as Muslims.


103. And hold fast to the rope of God, altogether, and do not become divided. And remember God’s blessings upon you; how you were enemies, and He reconciled your hearts, and by His grace you became brethren. And you were on the brink of a pit of fire, and He saved you from it. God thus clarifies His revelations for you, so that you may be guided.


104. And let there be among you a community calling to virtue, and advocating righteousness, and deterring from evil. These are the successful.


105. And do not be like those who separated and disputed after the clear proofs came to them; for them is a great punishment.


106. On the Day when some faces will be whitened, and some faces will be blackened. As for those whose faces are blackened: “Did you disbelieve after your belief?” Then taste the punishment for having disbelieved.


107. But as for those whose faces are whitened, they are in God’s mercy, remaining in it forever.


108. These are the revelations of God. We recite them to you in truth. God desires no injustice for mankind.


109. To God belongs everything in the heavens and everything on earth, and to God all events are referred.


110. You are the best community that ever emerged for humanity: you advocate what is moral, and forbid what is immoral, and believe in God. Had the People of the Scripture believed, it would have been better for them. Among them are the believers, but most of them are sinners.


111. They will do you no harm, beyond insulting you. And if they fight you, they will turn around and flee, then they will not be helped.


112. They shall be humiliated wherever they are encountered, except through a rope from God, and a rope from the people; and they incurred wrath from God, and were stricken with misery. That is because they rejected God’s revelations, and killed the prophets unjustly. That is because they rebelled and committed aggression.


113. They are not alike. Among the People of the Scripture is a community that is upright; they recite God’s revelations throughout the night, and they prostrate themselves.


114. They believe in God and the Last Day, and advocate righteousness and forbid evil, and are quick to do good deeds. These are among the righteous.


115. Whatever good they do, they will not be denied it. God knows the righteous.


116. As for those who disbelieve, neither their possessions nor their children will avail them anything against God. These are the inhabitants of the Fire, abiding therein forever.


117. The parable of what they spend in this worldly life is that of a frosty wind that strikes the harvest of a people who have wronged their souls, and destroys it. God did not wrong them, but they wronged their own selves.


118. O you who believe! Do not befriend outsiders who never cease to wish you harm. They love to see you suffer. Hatred has already appeared from their mouths, but what their hearts conceal is worse. We have made the messages clear for you, if you understand.


119. There you are, you love them, but they do not love you, and you believe in the entire Scripture. And when they meet you, they say, “We believe,” but when they are alone, they bite their fingers in rage at you. Say, “Die in your rage; God knows what is within the hearts.”


120. If something good happens to you, it upsets them; but if something bad befalls you, they rejoice at it. But if you persevere and maintain righteousness, their schemes will not harm you at all. God comprehends what they do.


121. Remember when you left your home in the morning, to assign battle-positions for the believers. God is Hearing and Knowing.


122. When two groups among you almost faltered, but God was their Protector. So in God let the believers put their trust.


123. God had given you victory at Badr, when you were weak. So fear God, that you may be thankful.


124. When you said to the believers, “Is it not enough for you that your Lord has reinforced you with three thousand angels, sent down?”


125. It is, but if you persevere and remain cautious, and they attack you suddenly, your Lord will reinforce you with five thousand angels, well trained.


126. God made it but a message of hope for you, and to reassure your hearts thereby. Victory comes only from God the Almighty, the Wise.


127. He thus cuts off a section of those who disbelieved, or subdues them, so they retreat disappointed.


128. It is no concern of yours whether He redeems them or punishes them. They are wrongdoers.


129. To God belongs everything in the heavens and the earth. He forgives whom He wills, and He punishes whom He wills. God is Most Forgiving, Most Merciful.


130. O you who believe! Do not feed on usury, compounded over and over, and fear God, so that you may prosper.


131. And guard yourselves against the Fire that is prepared for the disbelievers.


132. And obey God and the Messenger, that you may obtain mercy.


133. And race towards forgiveness from your Lord, and a Garden as wide as the heavens and the earth, prepared for the righteous.


134. Those who give in prosperity and adversity, and those who restrain anger, and those who forgive people. God loves the doers of good.


135. And those who, when they commit an indecency or wrong themselves, remember God and ask forgiveness for their sins—and who forgives sins except God? And they do not persist in their wrongdoing while they know.


136. Those—their reward is forgiveness from their Lord, and gardens beneath which rivers flow, abiding therein forever. How excellent is the reward of the workers.


137. Many societies have passed away before you. So travel the earth and note the fate of the deniers.


138. This is a proclamation to humanity, and guidance, and advice for the righteous.


139. And do not waver, nor feel remorse. You are the superior ones, if you are believers.


140. If a wound afflicts you, a similar wound has afflicted the others. Such days We alternate between the people, that God may know those who believe, and take martyrs from among you. God does not love the evildoers.


141. So that God may prove those who believe, and eliminate the disbelievers.


142. Or do you expect to enter Paradise, before God has distinguished those among you who strive, and before He has distinguished the steadfast?


143. You used to wish for death before you have faced it. Now you have seen it before your own eyes.


144. Muhammad is no more than a messenger. Messengers have passed on before him. If he dies or gets killed, will you turn on your heels? He who turns on his heels will not harm God in any way. And God will reward the appreciative.


145. No soul can die except by God’s leave, at a predetermined time. Whoever desires the reward of the world, We will give him some of it; and whoever desires the reward of the Hereafter, We will give him some of it; and We will reward the appreciative.


146. How many a prophet fought alongside him numerous godly people? They did not waver for what afflicted them in the cause of God, nor did they weaken, nor did they give in. God loves those who endure.


147. Their only words were, “Our Lord, forgive us our offences, and our excesses in our conduct, and strengthen our foothold, and help us against the disbelieving people.”


148. So God gave them the reward of this world, and the excellent reward of the Hereafter. God loves the doers of good.


149. O you who believe! If you obey those who disbelieve, they will turn you back on your heels, and you end up losers.


150. God is your Master, and He is the Best of Helpers.


151. We will throw terror into the hearts of those who disbelieve, because they attribute to God partners for which He revealed no sanction. Their lodging is the Fire. Miserable is the lodging of the evildoers.


152. God has fulfilled His promise to you, and you defeated them by His leave; until when you faltered, and disputed the command, and disobeyed after He had shown you what you like. Some of you want this world, and some of you want the next. Then He turned you away from them, to test you, but He pardoned you. God is Gracious towards the believers.


153. Remember when you fled, not caring for anyone, even though the Messenger was calling you from your rear. Then He repaid you with sorrow upon sorrow, so that you would not grieve over what you missed, or for what afflicted you. God is Informed of what you do.


154. Then after the setback, He sent down security upon you. Slumber overcame some of you, while others cared only for themselves, thinking of God thoughts that were untrue—thoughts of ignorance— saying, “Is anything up to us?” Say, “Everything is up to God.” They conceal within themselves what they do not reveal to you. They say, “If it was up to us, none of us would have been killed here.” Say, “Even if you Had stayed in your homes, those destined to be killed would have marched into their death beds.” God thus tests what is in your minds, and purifies what is in your hearts. God knows what the hearts contain.


155. Those of you who turned back on the day when the two armies clashed—it was Satan who caused them to backslide, on account of some of what they have earned. But God has forgiven them. God is Forgiving and Prudent.


156. O you who believe! Do not be like those who disbelieved, and said of their brethren who marched in the land, or went on the offensive, “Had they stayed with us, they would not have died or been killed.” So that God may make it a cause of regret in their hearts. God gives life and causes death. God is Seeing of what you do.


157. If you are killed in the cause of God, or die—forgiveness and mercy from God are better than what they hoard.


158. If you die, or are killed—to God you will be gathered up.


159. It is by of grace from God that you were gentle with them. Had you been harsh, hardhearted, they would have dispersed from around you. So pardon them, and ask forgiveness for them, and consult them in the conduct of affairs. And when you make a decision, put your trust in God; God loves the trusting.


160. If God supports you, there is none who can overcome you. But if He fails you, who is there to help you after Him? So in God let the believers put their trust.


161. It is not for a prophet to act dishonestly. Whoever acts dishonestly will bring his dishonesty on the Day of Resurrection. Then every soul will be paid in full for what it has earned, and they will not be wronged.


162. Is someone who pursues God's approval the same as someone who incurs God's wrath, and his refuge is Hell—the miserable destination?


163. They have different ranks with God, and God is Seeing of what they do.


164. God has blessed the believers, as He raised up among them a messenger from among themselves, who recites to them His revelations, and purifies them, and teaches them the Scripture and wisdom; although before that they were in evident error.


165. And when a calamity befell you, even after you had inflicted twice as much, you said, “How is this?” Say, “It is from your own selves.” God is Able to do all things.


166. What befell you on the day the two armies clashed was with God’s permission; that He may know the believers.


167. And that He may know the hypocrites. And it was said to them, “Come, fight in the cause of God, or contribute.” They said, “If we knew how to fight, we would have followed you.” On that day they were closer to infidelity than they were to faith. They say with their mouths what is not in their hearts; but God knows what they hide.


168. Those who said of their brethren, as they stayed behind, “Had they obeyed us, they would not have been killed.” Say, “Then avert death from yourselves, if you are truthful.”


169. Do not consider those killed in the cause of God as dead. In fact, they are alive, at their Lord, well provided for.


170. Delighting in what God has given them out of His grace, and happy for those who have not yet joined them; that they have nothing to fear, nor will they grieve.


171. They rejoice in grace from God, and bounty, and that God will not waste the reward of the faithful.


172. Those who responded to God and the Messenger, despite the persecution they had suffered. For the virtuous and the pious among them is a great reward.


173. Those to whom the people have said, “The people have mobilized against you, so fear them.” But this only increased them in faith, and they said, “God is enough for us; He is the Excellent Protector.”


174. So they came back with grace from God, and bounty, and no harm having touched them. They pursued what pleases God. God possesses immense grace.


175. That is only Satan frightening his partisans; so do not fear them, but fear Me, if you are believers.


176. And do not be saddened by those who rush into disbelief. They will not harm God in the least. God desires to give them no share in the Hereafter. A terrible torment awaits them.


177. Those who exchange blasphemy for faith will not harm God in the least. A painful torment awaits them.


178. Those who disbelieve should not assume that We respite them for their own good. We only respite them so that they may increase in sinfulness. A humiliating torment awaits them.


179. God will not leave the believers as you are, without distinguishing the wicked from the sincere. Nor will God inform you of the future, but God elects from among His messengers whom He wills. So believe in God and His messengers. If you believe and practice piety, you will have a splendid reward.


180. Those who withhold what God has given them of his bounty should not assume that is good for them. In fact, it is bad for them. They will be encircled by their hoardings on the Day of Resurrection. To God belongs the inheritance of the heavens and the earth, and God is well acquainted with what you do.


181. God has heard the statement of those who said, “God is poor, and we are rich.” We will write down what they said, and their wrongful killing of the prophets; and We will say, “Taste the torment of the burning.”


182. “This is on account of what your hands have forwarded, and because God is not unjust towards the creatures.”


183. Those who said, “God has made a covenant with us, that we shall not believe in any messenger unless he brings us an offering to be consumed by fire.” Say, “Messengers have come to you before me with proofs, and with what you asked for; so why did you assassinate them, if you are truthful?”


184. If they accuse you of lying, messengers before you were accused of lying. They came with the proofs, and the Psalms, and the Illuminating Scripture.


185. Every soul will have a taste of death, and you will receive your recompense on the Day of Resurrection. Whoever is swayed from the Fire, and admitted to Paradise, has won. The life of this world is merely enjoyment of delusion.


186. You will be tested through your possessions and your persons, and you will hear from those who received the Scripture before you, and from the idol worshipers, much abuse. But if you persevere and lead a righteous life—that indeed is a mark of great determination.


187. God received a pledge from those who were given the Scripture: “You shall proclaim it to the people, and not conceal it.” But they disregarded it behind their backs, and exchanged it for a small price. What a miserable exchange they made.


188. Do not think that those who rejoice in what they have done, and love to be praised for what they have not done—do not think they can evade the punishment. They will have a painful punishment.


189. To God belongs the sovereignty of the heavens and the earth. God has power over all things.


190. In the creation of the heavens and the earth, and in the alternation of night and day, are signs for people of understanding.


191. Those who remember God while standing, and sitting, and on their sides, and they reflect upon the creation of the heavens and the earth: “Our Lord, You did not create this in vain. Glory to You! So protect us from the punishment of the Fire.”


192. “Our Lord, whomever You commit to the Fire, You have disgraced. The wrongdoers will have no helpers.”


193. “Our Lord, we have heard a caller calling to the faith: `Believe in your Lord,' and we believed. Our Lord! Forgive us our sins, and remit our misdeeds, and make us die in the company of the virtuous.”


194. “Our Lord, and give us what You have promised us through Your messengers, and do not disgrace us on the Day of Resurrection. Surely You never break a promise.”


195. And so their Lord answered them: “I will not waste the work of any worker among you, whether male or female. You are one of another. For those who emigrated, and were expelled from their homes, and were persecuted because of Me, and fought and were killed—I will remit for them their sins, and will admit them into gardens beneath which rivers flow—a reward from God. With God is the ultimate reward.”


196. Do not be impressed by the disbelievers’ movements in the land.


197. A brief enjoyment, then their abode is Hell. What a miserable resort.


198. As for those who feared their Lord, for them will be gardens beneath which rivers flow, wherein they will abide forever— hospitality from God. What God possesses is best for the just.


199. Among the People of the Scripture are those who believe in God, and in what was revealed to you, and in what was revealed to them. They are humble before God, and they do not sell God’s revelations for a cheap price. These will have their reward with their Lord. God is swift in reckoning.


200. O you who believe! Be patient, and advocate patience, and be united, and revere God, so that you may thrive.             


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