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सूरा-अल-अनआम | Surah 6

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सूरा-अल-अनआम

| मक्का कालीन | आयत 165| 

मवेशी

सूरा-अल-अनआम | Surah 6

अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहरबान, रहम करने वाला है।

तमाम तारीफें अल्लाह के लिए हैं जिस ने आस्मानों और जमीन को पैदा किया और अन्धेरों और रौशनी को बनाया, फिर काफ़िर अपने रब के साथ बराबर करते हैं (औरों को बराबर ठहराते हैं।। (1) 

वह जिस ने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर जिन्दगी की मुददत मुकर्रर कि, और उस के हाँ एक वक्त (क़ियामत का) मुकर्रर है, फिर तुम शक करते हो। (2) 

और वही है अल्लाह आस्मानों में और जमीन में, वह तुम्हारा बातिन और तुम्हारा ज़ाहिर जानता है और जानता है जो तुम कमाते हो (करते हो)। (3) 

और उन के पास नहीं आई उन के रब की निशानियों में से कोई निशानी मगर वह उस से मुँह फेर लेते हैं। (4) 

पर बेशक उन्हों ने हक को झुटलाया जब उन के पास आया। सो जल्द ही उस की हकीकत उन के सामने आजाएगी जिस का वह मज़ाक उड़ाते थे। (5) 

क्या उन्हों ने नहीं देखा? हम ने उन से क़ब्ल कितनी उम्मतें हलाक की? हम ने उन्हें मुल्क में जमाया था (इकतिदार दिया था जितना तुम्हें नहीं जमाया (इक्तिदार दिया) और हम ने उन पर मूसलाधार (बरस्ता) बादल भेजा, और हम ने नहरें बनाईं जो उन के नीचे बहती थें, फिर हम ने उन के गुनाहों के सबब उन्हें हलाक किया और उन के बाद हम ने दूसरी उम्मतें खड़ी की (बदल दी)। (6) 

और अगर हम उतारे तुम पर कागज में लिखा हुआ, फिर वह उसे अपने हाथों से छू (भी) लें। अलबत्ता काफ़िर कहेंगे यह नहीं है मगर (सिर्फ़) खुला जादू! (7)

और कहते हैं उस पर फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा गया? और अगर हम फ़रिश्ता उतारते तो काम तमाम हो गया होता, फिर उन्हें मोहलत न दी जाती। (8)

और अगर हम उसे फ़रिश्ता बनाते तो हम उसे आदमी (ही) बनाते, और हम उन पर शुबा डालते (जिस में वह अब) पड़ रहे हैं। (9)

और अल्बत्ता आप (स) से पहले रसूलों के साथ हँसी की गई, तो घेर लिया उन में से हँसी करने वालों को (उस चीज़ ने) जिस पर वह हँसी करते थे| (10) 

आप (स) कह दें मुल्क में सैर करो (चल फिर कर देखो) फिर देखो झटलाने वालों का अनजाम कैसा हुआ? (11) 

आप (स) पूछे किस के लिए है जो आस्मानों में और जमीन में है? कह दें (सब) अल्लाह के लिए है, अल्लाह ने अपने ऊपर रहमत लिख ली है (अपने जिम्में ले ली है), क़ियामत के दिन तुम्हें ज़रूर जमा करेगा जिस में कोई शक नहीं, जिन लोगों ने अपने आप को ख़सारे में डाला तो वही ईमान नहीं लाएंगे। (12) 

और उस के लिए है जो बस्ता है रात में और दिन में, और वह सुनने वाला जानने वाला है। (13) 

आप (स) कह दें क्या मैं अल्लाह के सिवाए (किसी और को) कारसाज़ बनाऊं? (जो) आस्मानों और जमीन का बनाने वाला है, वह (सब को) खिलाता है और वह खुद नहीं खाता| आप (स) कह दें बेशक मुझे हुक्म दिया गया है कि सब से पहला हो जाऊं जिस ने हुक्म माना, और तुम हरगिज शिर्क करने वालों से न होना। (14) 

आप (स) कह दें बेशक अगर मैं अपने रब की नाफरमानी करूं तो बड़े दिन के अज़ाब से डरता हूँ। (15) 

उस दिन जिस से (अजाब) फेर दिया जाए, तहककि उस पर अल्लाह ने रम किया और यह खुली कामयाबी है। (16) 

और अगर अल्लाह तुम्हें सख्ती पहुँचाए तो कोई दूर करने वाला नहीं उस को उस के सिवा, और अगर वह कोई भलाई पहुंचाए तुम्हें तो वह हर शै पर कादिर है। (17) 

और वह अपने बन्दों पर गालिब है, और वह हिक्मत वाला (सब की) खबर रखने वाला है। (18)

आप (स) कहें सब से बड़ी गवाही किस की? आप (स) कह दें मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह गवाह है, और मुझ पर यह कुरआन वहि किया गया है ताकि मैं तुम्हें इस से डराऊं और जिस तक यह पहुंचे, क्या तुम (वाक़ई) गवाही देते हो कि अल्लाह के साथ कोई और भी माबूद हैं! आप (स) कह दें मैं (ऐसी) गवाही नहीं देता आप (स) कह दें सिर्फ वह माबूद यकता है, और मैं उस से बेज़ार हूँ जो तुम शिर्क करते हो। (19) 

वह लोग जिन्हें हम ने किताब दी वह उस को पहचानते हैं जैसे वह अपने बेटों को पहचानते हैं। जिन लोगो ने खसारे में डाला अपने आप को सो वह ईमान नहीं लाते। (20) 

और उस से बड़ा जालिम कौन जो अल्लाह पर झूट बुहतान बन्धे या झुटलाए उस की आयतों को, बेशक जालिम फलाह (कामयाबी) नहीं पाते। (21) 

और जिस दिन हम उन सब को जमा करेंगे, फिर हम कहेंगे मुश्रिकों कोः कहां हैं तुम्हारे शरीक जिन का तुम दावा करते थे| (22) 

फिर न होगी उन की शरारत (उन का उज़र) इस के सिवा कि वह कहेंगेः हमारे रब अल्लाह की कसम हम मुरिक न थे| (23) 

देखो! उन्हों ने कैसे झूट बान्धा अपनी जानों पर और वह जो बातें बनाते थे उन से खोई गईं। (24) 

और उन से (बाज़) आप की तरफ़ कान लगाए रखते हैं और हम ने उन के दिलों पर पर्दै डाल दिए हैं कि वह उसे न समझें और उन के कानों में बोझ है, और अगर वह देखें तमाम निशानियां (फिर भी) उस पर ईमान न लाएंगे यहां तक कि जब आप (स) के पास आते हैं तो आप (स) से । झगड़ते हैं, कहते हैं वह लोग जिन्हों ने कुफ़ किया (काफ़िर): यह सिर्फ पहलों की कहानियां हैं। (25) 

और वह उस से (दूसरों को रोकते है और (खुद भी) उस से भागते हैं, और वह सिर्फ अपने आप को हलाक करते हैं और शऊर नहीं रखते। (26)

और कभी तुम देखो जब वह आग (दोज़ख) पर खड़े किए जाएंगं तो कहेंगे ऐ काश! हम वापस भेजे जाएं और अपने रब की आयतों को न झुटलाएं और हो जाएं ईमान वालो में से| (27) 

बल्कि वह उस से कब्ल जो छुपाते थे उन पर ज़ाहिर हो गया और वह अगर वापस भेजे जाएं तो फिर (वही) करने लगें जिस से वह रोके गए और बेशक वह झूटे हैं। (28) 

और कहते हैं हमारी सिर्फ यही दुनिया की जिन्दगी है और हम उठाए जाने वाले नहीं (हमें फिर जिन्दा नहीं होना)। (29)

और कभी तुम देखो जब वह अपने रब के सामने खड़े किए जाएंगे। वह फरमाएगा क्या यह नहीं सच, वह कहेंगे हां हमारे रब की कसम (क्यों नहीं), वह फ़रमाएगा पर अजाब चखो इस लिए कि तुम कुफ़ करते थे। (30)

तहकीक वह लोग घाटे में पड़े जिन्हों ने अल्लाह के मिलने को झुटलाया यहां तक कि जब अचानक उन पर कियामत आ पहुंची कहने लगे हाए हम पर अफ़सोस! जो हम ने उस में कोताही की, और वह अपने बोझ अपनी पीठों पर उठाए होंगे| आगाह रहो बुरा है जो वह उठाएंगे। (31) 

और दुनिया की ज़िन्दगी सिर्फ खेल और जी का बेहलावा है, और आखिरत का घर उन लोगें के लिए बेहतर है जो परहेज़गारी करते हैं, सो क्या तुम अक्ल से काम नहीं लेते। (32) 

बेशक हम जानते हैं आप (स) को वह (बात) ज़रूर रंजीदा करती है जो वह कहते हैं, सो वह यकीनन आप (स) को नहीं झुटलाते बलकि जालिम लोग अल्लाह की आयतों का इन्कार करते हैं। (33) 

और अलबत्ता रसूल झुटलाए गए आप (स) से पहले, पर उन्हों ने सबर किया उस पर जो वह झुटलाए गए और सताए गए यहां तक कि उन पर हमारी मद्द । आगई, और (कोई बदलने वाला नहीं अल्लाह की बातों को, और अलबत्ता आप (स) के पास रसूलों की कुछ खबरें पहुंच चुकी हैं। (34)

और अगर आप (स) पर गरां है उन का मुंह फेरना तो अगर तुम से हो सके तो ज़मीन में कोई सुरंग या आस्मान में कोई सीढ़ी ढूंड निकालो फिर तुम उन के पास कोई निशानी ले आओ, और अगर आल्लाह चाहता तो उन्हें हिदायत पर जमा कर देता, सो आप (स) बे ख़बरो में से न हों। (35) मानते सिर्फ वह हैं जो सुनते हैं,

और मुदी को अल्लाह उठाएगा (दोबारा जिन्दा करेगा) फिर वह उस की तरफ़ लौटाए जाएंगे। (36) 

और वह कहते हैं कि उस पर उस के रब की तरफ से कोई निशानी क्यों नहीं उतारी गई? आप (स) कह दें बेशक अल्लाह उस पर कादिर है कि वह उतारे निशानी, लेकीन उन में अक्सर नहीं जानते। (37) 

और जमीन में कोई चलने वाला (हैवान) नहीं और न कोई परिन्दा जो अपने परों से उड़ता है मगर (उन की भी) तुम्हारी तरह जमाअतें हैं, हम ने किताब में कोई चीज़ नहीं छोड़ी, फिर अपने रब की तरफ़ जमा किए जाएंगे। (38) 

और जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुटलाया वह बहरे और गूंगे हैं, अन्धेरों में हैं, जिस को अल्लाह चाहे गुमराह कर दे, और जिस को चाहे सीधे रास्ते पर चलादे | (39) 

आप (स) कह दें भला देखो अगर तुम पर अल्लाह का अजाब आय या तुम पर कियामत आजाए, क्या तुम अल्लाह के सिवा (किसी और को) पुकारोगे? अगर तुम सच्चे हो। (40) 

बल्कि तुम उसी को पुकारते हो, पर जिस (दुख) के लिए उसे पुकारते हो अगर वह चाहे तो वह उसे दूर कर देता है, और तुम भूल जाते हो जिस को तुम शरीक करते हो। (41) 

तहक़ीक हम ने तुम से पहली उम्मतों की तरफ़ रसूल भेजे फिर हम ने (उन की नाफरमानी के सबब) उन्हें पकड़ा सख्ती और तकलीफ में ताकि वह गिड़गिड़ाएं। (42) 

फिर जब उन पर हमारा अज़ाब आया वह क्यों न गिड़गिड़ाए लेकिन उन के दिल सख्त हो गए और जो वह करते थे शैतान ने उन को आरास्ता कर दिखाया। (43)

फिर जब वह भूल गए वह नसीहत जो उन्हें की गई तो हम ने उन पर हर चीज़ के दरवाजे खोल दिए यहां तक कि जब वह उस से खुश हो गए जो उन्हें दी गई तो हम ने उन को अचानक पकड़ा (धर लिया) पर उस वक्त वह मायूस हो कर रह गए। (44) 

फिर ज़ालिम कौम की जड़ काट दी गई, और हर तारीफ़ अल्लाह के लिए है जो सारे जहानों का रब है। (45) 

आप (स) कह दें भला देखो, अगर अल्लाह तुम्हारे कान और तुम्हारी आँखें छीन ले और तुम्हारे दिलों पर मुहर लगादे तो अल्लाह के सिवा । कौन माबूद है जो तुम को यह चीजें ला दे (वापस करदे), देखो हम कैसे बदल बदल कर आयतें बयान करते है फिर वह किनारा करते हैं। (46) 

आप (स) कह दें देखो तो सही अगर तुम पर अल्लाह का अजाब अचानक या खुल्लम खुल्ला आए क्या ज़ालिम लोगों के सिवा (और कोई) हलाक होगा? (47) 

और हम रसूल नहीं भेजते मगर खुशखबरी देने वाले और डर सुनाने वाले | पर जो ईमान लाया और संवर गया तो उन पर कोई खौफ़ नहीं और न वह गमगीन होंगे। (48) 

और जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुटलाया उन्हें अज़ाब पहुँचेगा इस लिए कि वह नाफरमानी करते थे। (49) 

आप (स) कह दें, मैं नहीं कहता तुम से कि मेरे पास अल्लाह के खजाने हैं और न मैं गैब को जानता हूँ, और न मैं तुम से कहता हूँ कि मैं फरिश्ता है, मैं पैरवी नहीं करता मगर (सिर्फ उस की) जो मेरी तरफ़ वहि किया जाता है, आप (स) कह दें क्या नाबीना और बीना बराबर हो सकते हैं? सो क्या तुम गौर नहीं करते? (50) 

और उस से उन लोगों को डरावें जो खौफ़ रखतें हैं कि अपने रब के सामने जमा किए जाएंगे, उस के सिवा उन का न होगा कोई हिमायती और न कोई सिफारिश करने वाला, ताकि वह बचते रहें। (51)

और आप (स) उन लोगों को दूर न करें जो अपने रब को पुकारते हैं सुबह और शाम, वह उस की रज़ा चाहते हैं और आप (स) पर (आप (स) के जिम्मे) उन के हिसाब में से कुछ नहीं, और न आप (स) के हिसाब में से उन पर कुछ है। अगर उन्हें दूर करोगे तो जालिमों से हो जाओगे। (52) 

और इसी तरह हम ने उन में से बाज़ को बाज़ से आज़माया ताकि वह कहें क्या यही लोग हैं जिन पर अल्लाह ने फज्ल किया हम में से? क्या अल्लाह शुक्र गुज़ारों को खूब जानने वाला नहीं? (53) 

और जब आप (स) के पास वह लोग आएं जो हमारी आयतों पर ईमान रखते हैं तो आप (स) कह दें तुम पर सलाम है, तुम्हारे रब ने अपने आप पर रहमत लिख ली (लाज़िम कर ली) है कि तुम में जो कोई बुराई करे नादानी से फिर उस के बाद तौबा कर ले और नेक हो जाए तो बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है। (54)

और इसी तरह हम तफ़सील से बयान करते हैं आयतें और (यह इस लिए कि) गुनाहगारों का तरीका जाहिर हो जाए। (55) 

आप कह दें मुझे (इस बात से) रोका गया है कि मैं उन की बन्दगी करूं जिन्हें तुम पुकारते हो अल्लाह के सिवा, आप कह दें मैं तुम्हारी खाहिशात की पैरवी नहीं करता, उस सूरत में बेशक मैं बहक जाऊँगा और हिदायत पाने वालों में से न हों गा| (56) 

आप (स) कह दें बेशक मैं अपने रब की तरफ़ से रौशन दलील पर हूँ और तुम उस को झुटलाते हो, तुम जिस (अजाब) की जल्दी कर रहे हो मेरे पास नहीं। हुक्म सिर्फ अल्लाह के लिए है, वह हक बयान करता है और वह सब से बेहतर फैसला करने वाला है। (57) 

आप (स) कह दें अगर मेरे पास होती (वह चीज़) जिस की तुम जल्दी करते हो तो अलबत्ता मेरे और तुम्हारे दरमियान फैसला हो चुका होता, और अल्लाह जालिमों को खूब जानने वाला है। (58)

और उस के पास गैब की कुनजियां है, उन को उस के सिवा कोई नहीं जानता, वह जानता है जो खुश्की और तरी में है, और नहीं गिरता कोई पत्ता मगर वह उस को जानता है और कोई दाना नहीं जमीन के अन्धेरों में, और न कोई तर न कोई खुश्क, मगर सब रौशन किताब (लौहे महफूज) में है। (59)

और वही तो है जो रात में तुम्हारी (रूह) कब्ज कर लेता है और जानता है जो तुम दिन में कमा चुके हो, फिर तुम्हें उस (दिन) में उठाता है ताकि मुदत मुकर्ररा पूरी हो, फिर तुम्हें उसी की तरफ़ लौटना है, फिर तुम्हें जता देगा जी तुम करते थ। (60) 

और वही अपने बन्दों पर गालिब है, और तुम पर निगेहबान भेजता है यहां तक कि जब तुम में से किसी को मौत आ पहुंचे तो हमारे फ़रिश्ते उस की (रूह) कब्जे में ले लेते हैं और वह कोताही नहीं करते। (61) 

फिर लौटाए जाएंगें अपने सच्चे मौला की तरफ़, सुन रखो! हुक्म उसी का है और वह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है। (62) 

आप (स) कह दें तुम्हें खुश्की और दर्या के अन्धेरों से कौन बचाता है? (उस वक्त) तुम उस को गिड़गिड़ा कर और चुपके से पुकारते हो (और कहते हो) कि अगर हमें इस से बचाले तो हम शुक्र अदा करने वालों में से होंगे। (63) 

आप (स) कह दें अल्लाह तुम्हें उस से बचाता है और हर सख्ती से, फिर तुम शिर्क करते हो। (64) 

आप (स) कह दें वह कादिर है कि तुम पर भेजे अजाब तुम्हारे ऊपर से या तुम्हारे पाऊं के नीचे से या तुम्हें फ़िा -फिर्का कर के भिड़ा दे, और तुम मे से एक को चखा दे दूसरे की लड़ाई (का मज़ा), देखो हम किस तरह आयात फेर फेर कर बयान करते हैं ताकि वह समझ जाएं। (65) 

और तुम्हारी कौम ने उस को झुटलाया हालांकि वह हक है, आप (स) कह दें मैं तुम पर दारोगा नहीं। (66) 

हर खबर के लिए एक ठिकाना (मकरैरा वक्त) है और तुम जल्द जान लोगे। (67) 

और जब तू उन लोगों को देखे जो हमारी आयतों में झगड़ते हैं तो उन से किनारा कर ले यहां तक कि वह मशगूल हो जाएं उस के अलावा किसी और बात में, और अगर तुझे शैतान भुलादे तो याद आने के बाद न बैठ जालिम लोगों के पास| (68) 

और जो लोग परहेज़ करते हैं (परहेज़गार हैं) उन पर उन (झगड़ने वालों) के हिसाब में से कोई चीज नहीं, लेकिन नसीहत करना ताकि वह डरें (बाज़ आजाएं। (69) 

और उन लोगों को छोड़ दें जिन्हों ने अपने दीन को खेल और तमाशा बना लिया है और दुनिया की जिन्दगी ने उन्हें धोके में डाल दिया है, और उस (कुरआन) से नसीहत करो ताकि कोई अपने किए (अपने अमल) से पकड़ा न जाए, उस के लिए नहीं अल्लाह के सिवा कोई हिमायती और न कोई सिफारिश करने वाला, और अगर बदले में तमाम मुआवजे दें तो उस से न लिए जाएं (कुबूल न हों), यही वह लोग हैं जो अपने किए पर पकडे गए, उन्हें गर्म पानी पीना है और दर्दनाक अजाब है इस लिए कि वह कुफ़ करते थे। (70)

कह दें क्या हम अल्लाह के सिवा उस को पुकारें जो हमें न नफा दे सके न हमारा नुक्सान कर सके और (क्या) हम उलटे पाऊँ फिर जाएं उस के बाद जब कि अल्लाह ने हमें हिदायत दे दी उस शख्स की तरह जिसे शैतान ने भुला दिया ज़मीन (जंगल) में, वह हैरान हो, उस के साथी उस को हिदायत की तरफ़ बुलाते हों कि हमारे पास आ| आप (स) कह दें बेशक अल्लाह की हिदायत ही हिदायत है और हमें हुक्म दिया गया है कि तमाम जहानों के परवरदिगार के फ़रमांबरदार रहें। (71)

और यह कि नमाज़ काइम करो और उस से डरो, और वही है जिस की तरफ़ तुम इकटठे किए जाओगे| (72)

और वही है जिस ने आस्मानों और जमीन को ठीक तौर पर पैदा किया| और जिस दिन कहेगा “हो जा” तो वह “हो जाएगा", उस की बात सच्ची है, और मुल्क उसी का है, जिस दिन सूर फूंका जाएगा, गैब और जाहिर का जानने वाला, और वही है हिक्मत वाला, खबर रखने वाला। (73) 

और जब इब्राहीम (अ) ने कहा अपने बाप आज़र कोः क्या तू बुतों को माबूद बनाता है? बेशक मैं तुझे और तेरी कौम को खुली गुमराही में देखता हूँ। (74)

और इस तरह हम इब्राहीम (अ) को आस्मानों और जमीन की बादशाही (अजाइबात) दिखाने लगे ताकि वह यकीन करने वालों में से हो जाए। (75) 

फिर जब उस पर रात अन्धेरा कर लिया तो एक सितारा देखा, कहा यह मेरा रब है। फिर जब गाइब हो गया तो (इब्राहीम अ) कहने लगे मैं दोस्त नहीं रखता गाइब होने वालों को| (76) 

फिर जब चमकता हुआ चाँद देखा तो बोले यह मेरा रब है, फिर जब वह गाइब हो गया तो कहा अगर मुझे हिदायत न दे मेरा रब तो मैं भटकने वाले लोगों में से हो जाऊँ। (77) 

फिर जब उस ने जगमगाता हुआ सूरज देखा तो बोले यह मेरा रख है, यह सब से बड़ा है। फिर जब वह गाइब हो गया तो कहा ऐ मेरी कौम! बेशक मैं उन से बेज़ार हूँ जिन को तुम शरीक करते हो। (78) 

बेशक मैं ने अपना मुंह यक रुख हो कर उस की तरफ़ मोड़ लिया जिस ने ज़मीन और आस्मान बनाए और मैं शिर्क करने वालों से नहीं। (79)

और उस की कौम ने उस से झगड़ा किया तो उस ने कहा क्या तुम मुझ से अल्लाह (के बारे में झगड़ते हो? उस ने मुझे हिदायत दे दी है और मैं उन से नहीं डरता जिन्हें तुम शरीक ठहराते हो उस का, मगर यह कि मेरा रब कुछ (तकलीफ) पहुंचाना चाहे, मेरे रब के इल्म ने हर चीज़ का अहाता कर लिया है, सो क्या तुम सोचते नहीं? (80) 

और मैं तुम्हारे शरीक से क्योंकर डरूं? और तुम (इस से) नहीं डरते कि अल्लाह का शरीक करते हो जिस की उस ने नहीं उतारी तुम पर कोई दलील, सो दोनों फ़ीक़ में से अमन (दिलजमई) का कौन जियादा हकदार है? (बताओ) अगर तुम जानते हो। (81) 

जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने अपने ईमान को जुल्म से न मिलाया, उन्हीं लोगों के लिए दिलजमई है और वही हिदायत याफ्ता हैं। (82) 

और यह हमारी दलील है जो हम ने इब्राहीम (अ) को उन की कौम पर दी, हम जिस के दरजे चाहें । बुलन्द करते हैं। बेशक तुम्हारा रब हिक्मत वाला, जानने वाला। (83)

और हम ने उन (इब्राहीम अ) को बख्शा इसहाक (अ) और याकूब (अ), हम ने सब को हिदायत दी और नूह (अ) को हम ने हिदायत दी उस से कब्ल, और उन की औलाद में से दाऊद (अ) और सुलेमान (अ) और अय्यूब (अ) और यूसुफ़ (अ) और मूसा (अ) और हारून (अ) को, और इसी तरह हम नेक काम करने वालों को बदला देते हैं। (84) 

और जकरिया (अ) और यहया (अ) और ईसा (अ) और इलयास (अ), सब नेक बन्दों में से हैं। (85)

और इस्माईल (अ) और अलयस. (अ) और युस (अ) और लूत (अ), और सब को हम ने तमाम जहान वालों पर फजीलत दी। (86) 

और कुछ उन के बाप दादा और उन की औलाद और उन के भाइयों को, और हम ने उन्हें चुना और सीधे रास्ते की तरफ़ हिदायत दी। (87)

यह अल्लाह की रहनुमाई है। वह इस से हिदायत देता है अपने बन्दों में से जिसे चाहे, और अगर वह शिर्क करते तो जो कुछ वह करते थे जाया हो जाता। (88)

यह वह लोग हैं जिन्हें हम ने किताब दी और शरीअत और नबूव्वत दी, पर अगर यह लोग इस का इन्कार करें तो हम ने इन (बातों) के लिए मुकर्रर कर दिए हैं ऐसे लोग जो इस के इन्कार करने वाले नहीं। (89)

यही वह लोग हैं जिन्हें अल्लाह ने हिदायत दी, सो उन की राह पर चलो, आप कह दें मैं उस पर तुम से कोई उज्रत नहीं मांगता, यह तो नहीं मगर नसीहत तमाम जहान वालों के लिए। (90)

और उन्हों ने अल्लाह की क़द्र न की (जैसे) उस की कद्र का हक़ था जब उन्हों ने कहा कि अल्लाह ने किसी इन्सान पर कोई चीज़ नहीं उतारी, आप (स) कहें (वह) किताब किस ने उतारी जी मूसा (अ) ले कर आए लोगों के लिए रौशनी और हिदायत | तुम ने उसे वरक वरक कर दिया है, तुम उसे जाहिर करते हो और अक्सर छुपा लेते हो, और उस ने तुम्हें सिखाया जो न तुम जानते थे और न तुम्हारे बाप दादा, आप (स) कह दें अल्लाह (ने नाज़िल की), फिर उन्हें छोड़ दें अपने बेहूदा शुगल में खेलते रहें। (91) 

और यह (कुरआन) किताब है बरकत वाली, हम ने नाज़िल की, अपने से पहली (किताबों की तस्दीक करने वाली ताकि तुम डराओ अहले मक्का को और जो उस के इर्द गिर्द हैं (तमाम आस पास वाले), और जो लोग आखिरत पर ईमान रखते हैं वह उस पर ईमान लाते हैं और वह अपनी नमाज़ की हिफाज़त करते हैं। (92) 

और उस से बड़ा ज़ालिम कौन जो अल्लाह पर झूट (बुहतान) बान्धे, या कहे मेरी तरफ़ वहि की गई है और उसे कुछ वहि नहीं की। गई, (उसी तरह वह) जो कहे मैं अभी उतारता हूँ उस के मिस्ल जो अल्लाह ने नाज़िल किया| और । अगर तू देखे जब जालिम मौत की सख्तियों में हों और फ़रिश्ते अपने हाथ फैलाए हों कि अपनी जानें निकालो, आज तुम्हें जिल्लत का अजाब दिया जाएगा उस सबब से कि तुम अल्लाह के बारे में झूटी बातें कहते थे और उस की आयतों से तकब्बुर करते थे। (93) 

और अलबत्ता तुम हमारे पास अकेले अकेले आगए जैसे हम ने तुम्हें पहली बार पैदा किया था और जो हम ने तुम्हें (माल ओ असबाब) दिया था छोड़ आए अपनी पीठ । पछि, और हम तुम्हारे साथ तुम्हारे वह सिफारिश करने वाले नहीं देखते (जिन की निसबत) तुम गुमान करते थे कि वह तुम में (तुम्हारे) साझी हैं, अलबत्ता तुम्हारे दरमियान (रिश्ता) कट गया और तुम जो दावे करते थे सब जाते रहे। (94)

बेशक अल्लाह फाड़ने वाला दाने और गुठली का, वह मुर्दा से जिन्दा निकालता है और जिन्दा से मुर्दा निकालने वाला, यह है तुम्हारा अल्लाह, पर तुम कहां बहके जा रहे हो? (95)

(रात की तारीकी) चाक कर के सुबह निकालने वाला, और उस ने रात को (ज़रीआ) सुकून बनाया और सूरज और चाँद को (जरीआ) हिसाब, यह अन्दाज़ा है गालिब, इल्म वाले का। (96) 

वही है जिस ने तुम्हारे लिए सितारे बनाए ताकि तुम उन से खुश्की और दर्या के अन्धेरों में रास्ते मालूम करो, बेशक हम ने आयतें खोल खोल कर बयान कर दी हैं उन लोगों के लिए जो इल्म रखतें है। (97) 

और वही है जिस ने तुम्हें एक वजूद से पैदा किया, फिर तुम्हारा एक ठिकाना है और अमानत रहने की जगह | बेशक हम ने आयात खोल कर बयान कर दी हैं समझ वालों के लिए। (98) 

और वही है जिस ने आस्मानों से पानी उतारा, फिर हम ने उस से निकाली उगने वाली हर चीज़, फिर हम ने उस से हरे हरे केत और दरखत निकाले जिस से एक पर एक चढ़े हुए दाने निकालते हैं, और खजूरों के गाभे से झुके हुए खोशे, और अंगूर और जैतून और अनार के बागात एक दूसरे से मिलते जुलते और नहीं भी मिलते, उस के फल की तरफ़ देखो जब वह फलता है और उस का पकना (देखो), बेशक उस में उन लोगों के लिए निशानियां हैं जो ईमान रखते हैं। (99) 

और उन्हों ने जिन्नों को अल्लाह का शरीक ठहराया हालांकि उस ने उन्हें पैदा किया है और वह उस के लिए बेटे और बेटियां तराश्ते हैं जहालत से, वह पाक है और उस से बुलन्द तर है जो वह बयान करते हैं। (100) 

नई तरह (नमूने के बगैर) आस्मानों और ज़मीन का बनाने वाला, उस के बेटा क्योंकर हो सकता है? जबकि उस की बीवी नहीं और उस ने हर चीज़ पैदा की है, और वह हर चीज़ का जानने वाला है। (101) 

यही अल्लाह तुम्हारा रब है| उस के सिवा कोई माबूद नहीं, हर चीज़ का पैदा करने वाला, सो तुम उस की इबादत करो, और वह हर चीज़ का कारसाज़ और निगहबान है। (102) 

(मखलूक की) आँखें उस को नहीं पा सकतीं और वह आँखों को पा सकता है और वह भेद जानने वाला ख़बरदार है। (103) 

तुम्हारे रब की तरफ से निशानियां आ चुकीं। तो जिस ने देख लिया सो अपने वास्ते, और जो अन्धा रहा तो (उस का वबाल) उस की जान पर, और मैं तुम पर निगहबान नहीं। (104) 

और उसी तरह हम आयतें फेर फेर कर बयान करते हैं ताकि वह कहें: तू ने (किसी से) पढ़ा है, और ताकि हम जानने वालों के लिए वाजेह कर दें। (105)

उस पर चलो जो वहि आए तुम्हारे रब से तुम्हारी तरफ, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, और मुश्रिकों से मुंह फेर लो। (106) 

अगर अल्लाह चाहता तो वह शिर्क न करते और हम ने तुम्हें उन पर निगहबान नहीं बनाया, और तुम उन पर दारोगा नहीं। (107) 

और अल्लाह के सिवा वह जिन्हें पुकारते हैं तुम उन्हें गाली न दो, पर वह अल्लाह को बे समझे बूझे गुस्ताखी से बुरा कहेंगें, उसी तरह हम ने हर फ़िरके को उस का अमल भला दिखाया, फिर उन्हें अपने रब की तरफ़ लौटना है, वह फिर उन को जता देगा जो वह करते थे| (108) 

और वह ताकीद से अल्लाह की कसम खाते हैं कि अगर उन के पास कोई निशानी आए तो जरूर उस पर ईमान लाएंगें, आप (स) कह दें कि निशानियां तो अल्लाह के पास हैं, और तुम्हें क्या ख़बर कि जब आ भी जाएं तो यह ईमान न लाएंगे| (109) 

और हम उन के दिल और उन की आँखें उलट देंगे, जैसे वह उन (निशानियों) पर पहली बार ईमान नहीं लाए, और हम उन्हें छोड़ देंगे उन की सरकशी में कि वह बहकते रहें। (110) 

और अगर हम उन की तरफ फ़रिश्ते उतारते, और उन से मुर्दै बातें करते, और हम जमा कर देते उन पर (उन के सामने) हर चीज़ तो भी वह ईमान न लाते मगर यह कि अल्लाह चाहे, और लेकिन उन में अक्सर नादान है। (111)

और इसी तरह हम ने हर नबी के लिए इन्सानों और जिनों के शयातीन को दुश्मन बना दिया, एक दूसरे की तरफ़ मुलम्मा की हुई बातें बहकाने के लिए इलका करते रहते हैं, और अगर तुम्हारा रब चाहता तो वह ऐसा न करते, पर उन्हें छोड़ दें (उस के साथ) जो वह झूट घड़ते हैं। (112) 

और ताकि उन लोगों के दिल उस की तरफ़ माइल हो जाएं जो आखिरत पर ईमान नहीं रखते, और ताकि वह उस को पसन्द करें, और ताकि वह करते रहें जो वह बुरे काम करते हैं। (113) 

क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और मुनसिफ ढून् ! और वही है जिस ने तुम्हारी तरफ़ मुफस्सिल (वाजेह) किताब नाज़िल की है, और जिन्हें हम ने किताब दी है (अहले किताब) वह जानते हैं कि यह तुम्हारे रब की तरफ से हक़ के साथ उतारी गई है, सो तुम शक करने वालों में से न होना। (114) 

और कामिल है तेरे रब की बात सच और इन्साफ़ के ऐतिबार से, उस के कलिमात को कोई बदलने वाला नहीं, और वह सुनने वाला, जानने वाला है। (115) 

और ज़मीन मे अक्सर (ऐसे हैं। अगर तू उन का कहा माने तो वह तुझे अल्लाह के रास्ते से भटका देंगें, वह नहीं पैरवी करते मगर सिर्फ गुमान की, और वह सिर्फ अटकल दौड़ाते हैं। (116) 

बेशक तेरा रब उसे खूब जानता है जो बहकता है उस के रास्ते से, और वह हिदायत याफ्ता लोगों को खूब जानता है। (117) 

सो तुम उस में से खाओ जिस पर अल्लाह का नाम लिया गया अगर तुम उस की आयतों पर ईमान रखते हो। (118)

और तुम्हें क्या हुआ कि तुम उस में से न खाओ जिस पर अल्लाह का नाम लिया गया है हालांकि वह तुम्हारे लिए वाजेह कर चुका है जो उस ने तुम पर हराम किया है मगर यह कि तुम लाचार हो जाओ, और बहुत से (लोग) अपनी ख़ाहिशात से इल्म (तहक़ीक़) के बगैर गुमराह करते हैं, बेशक तुम्हारा रब हद से बढ़ने वालों को खूब जानता है। (119)

और छोड़ दो खुला गुनाह और छुपा हुआ, बेशक जो लोग गुनाह करते हैं अनक़रीब उस की सज़ा पालेंगें जो वह बुरे काम करते थे। (120)

और उस से न खाओ जिस पर अल्लाह का नाम नहीं लिया गया और बेशक यह गुनाह है, और बेशक शैतान अपने दोस्तों के (दिलों मे वस्वसा) डालते हैं ताकि वह तुम से झगड़ा करें, और अगर तुम ने उन का कहा माना तो बेशक तुम मुश्रिक होगे। (121)

क्या (वह शख्स) जो मुर्दा था फिर हम ने उस को जिन्दा क्या और हम ने उस के लिए नूर बनाया, वह चलता है उस (नूर की रौशनी) से लोगों में, (क्या) उस जैसा हो जाएगा जो अन्धेरों में है? उस से निकलने वाला नहीं, इसी तरह काफ़िरों के लिए उन के अमल जीनत दिए गए। (122)

और इसी तरह हम ने हर बस्ती में बनाए उस के बड़े मुशिम ताकि वह उस में मकर करें, और वह मकर नहीं करते मगर अपनी जानों पर, (अपनी ही जानों पर चालें चलते हैं), और वह शऊर नहीं रखते। (123)

और जब उन के पास कोई आयत आती है तो कहते हैं कि हम हरगिज़ न मानेंगे जब तक हमें उस जैसा न दिया जाए जो अल्लाह के रसूलों को दिया गया, अल्लाह खूब जानता है कि अपनी रिसालत कहां भेजे, अनक़रीब उन लोगों को पहुँचेगी जिन्हों ने जुर्म किया, अल्लाह के हाँ जिल्लत और सख्त अजाब, उस का बदला कि वह मकर करते थे | (124) 

पर अल्लाह जिस को हिदायत देना चाहता है, उस का सीना इस्लाम के लिए खोल देता है। और जिस को चाहता है कि उसे गुमराह करे, उस का सीना तंग भींचा हुआ (निहायत तंग) कर देता है। गोया कि वह जोर से (बमुश्किल) आस्मान पर चढ़ रहा है, इसी तरह अल्लाह उन लोगें पर अजाब डालेगा जो ईमान नहीं लाते। (125) 

यह रास्ता है तुम्हारे रब का सीधा, हम ने आयात खोल कर बयान कर दी हैं उन लोगों के लिए जी नसीहत पकड़ते हैं, (126) 

उन के लिए उन के रब के पास सलामती का घर है और वह उन का कारसाज़ है उस के सिले में जो वह करते थे। (127)

और जिस दिन वह जमा करेगा उन सब को (फ़रमाएगा) ऐ गिरोह जिन्नात! तुम ने बहुत से आदमी अपने ताबे कर लिए, और इन्सानों में से उन के दोस्त कहेंगे ऐ हमारे रव! हमारे बाज़ ने बाज़ (एक दूसरे) से फाइदा उठाया और हम उस मीआद (घड़ी) को पहुंच गए जो तू ने मूकर्रर की थी। फ़रमाएगा आग तुम्हारा ठिकाना है, उस में हमेशा रहोगे मगर जिसे अल्लाह चाहे, बेशक तुम्हारा रब हिक्मत वाला, जानने वाला है। (128) 

और इसी तरह हम बाज़ ज़ालिमों को बाज़ पर (एक दूसरे पर) मुसल्लत कर देते हैं उन के आमाल के सबब। (129) 

ऐ गिरोहे जिन्नात ओ इन्सान! क्या तुम्हारे पास तुम में से हमारे रसूल नहीं आए? वह तुम पर हमारे अहकाम बयान करते थे और तुम्हें डराते थे यह दिन देखने से| वह कहेंगे हम अपनी जानों के खिलाफ (अपने खिलाफ़) गवाही देते हैं, और उन्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने धोके में डाल दिया और उन्हों ने अपने खिलाफ गवाही दी कि वह काफ़िर थे। (130) 

यह इस लिए है कि तेरा रब जुल्म की सज़ा में बस्तियों को हलाक करने वाला नहीं जब कि उन के लोग बेखबर हों। (131) 

और हर एक के लिए उन के आमाल के दरजे हैं और तुम्हारा रब उस से बेखबर नहीं जो वह करते हैं। (132) 

और तुम्हारा रब बेनियाज़ है, रहमत वाला, अगर वह चाहे तो तुम्हें ले जाए (हलाक कर दे) और जिस को चाहे तुम्हारे बाद जांनशीन कर दे, जैसे उस ने तुम्हें उठाया औलाद से एक दूसरी कौम की। (133) 

बेशक जिस का तुम से वादा किया जाता है वह ज़रूर आने वाली है और तुम आजिज़ करने वाले नहीं। (134) 

आप (स) फ़रमा दें, ऐ मेरी कौम! तुम अपनी जगह काम करते रहो, मैं भी काम कर रहा हूँ, पर तुम अनकरीब जान लोगे किस के लिए है आकिबत का घर| बेशक जालिम (दो जहान की) कामयाबी नहीं पाते | (135)

और (अल्लाह ने) जो खेती और मवेशी पैदा किए हैं उस से उन्हों ने ठहराया है अल्लाह के लिए एक हिस्सा, पर उन्हों ने अपने ख़याल में कहा यह अल्लाह के लिए है और यह हमारे शरीकों के लिए है, पर जो उन के शरीकों के लिए है तो वह नहीं पहुंचता अल्लाह को| और जो अल्लाह के लिए है वह उन के शरीकों को पहुंच जाता है, बुरा है जो वह फैसला करते हैं। (136) 

और इसी तरह बहुत से मुश्रिकों के लिए उन के शरीकों ने औलाद का क़त्ल अरास्ता कर दिया है ताकि वह उन्हें हलाक कर दें, और उन पर उन का दीन गुड मड कर दें। और अगर अल्लाह चाहता तो वह (ऐसा) न करते, सो तुम उन्हें छोड़ो और वह जो झूट बान्धते हैं (वह जानें और उन का झूटा (137)

और उन्हों ने कहा यह मवेशी और खेती ममनूअ है, उसे कोई न खाए मगर जिस को हम चाहें उन के (झूट) ख़याल के मुताबिक और कुछ मवेशी हैं कि उन की पीठ पर (सवारी) हराम की है और कुछ मवेशी है (जुव्ह करते वक्त) उन पर अल्लाह का नाम नहीं लेते, (यह) झूट बान्धना है उस (अल्लाह) पर, हम जल्द उन्हें उस की सजा देंगें जो वह झूट बान्धते थे। (138)

और उन्हों ने कहा जो उन मवेशियों के पेट में है वह खालिस हमारे मर्दो के लिए है और हमारी औरतों पर हराम है, और अगर मुर्दा हो तो सब उस में शरीक है. वह जल्द उन्हें उन के बातें बनाने की सज़ा देगा, वह बेशक हिक्मत वाला जानने वाला है। (139)

अलबत्ता वह लोग घाटे में पड़े जिन्हों ने बेवकूफ़ी, नादानी से अपनी औलाद को क़त्ल किया और जो अल्लाह ने उन्हें दिया वह हराम ठहरा लिया झूट बान्धते हुए अल्लाह पर, यकीनन वह गुमराह हुए, और वह हिदायत पाने वाले न थे। (140) 

और वही (खालिक) है जिस ने बागात पैदा किए (छतरियों पर) चढ़ाए हुए (जैसे अंगूर) और (छतरियों पर न चढ़ाए हुए, और खजूर और खेती, उस के फल मुखतलिफ़ (किस्म के) और जैतून और अनार मिलते जुलते और जुदा जुदा, जब वह फल लाए। तो उस के फल खाओ, और उस के काटने के दिन उस का हक (उश्र) अदा कर दो, और बेजा खर्च न करो, बेशक अल्लाह बेजा खर्च करने वालों को पसन्द नहीं करता। (141) 

और चौपायों में से (पैदा किए) बार बरदार (बड़े बड़े) और जमीन पर लगे हुए (छोटे छोटे), जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है उस में से खाओ और शैतान के क़दमों की पैरवी न करो, बेशक वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। (142)

आठ जोड़े (नर और मादा पैदा किए) दो भेड़ से दो बकरी से, आप पूछे क्या (अल्लाह ने) दोनों नर हराम किए हैं या दोनों मादा? या वह जी दोनों मादा के रहम में लिपटा हुआ (अभी पेट में) हो? मुझे किसी इल्म से बताओ अगर तुम सच्चे हो। (143) 

और दो ऊँट से और दो गाए से (पैदा किए), आप (स) पूछे क्या अल्लाह ने दोनों नर हराम किए हैं या दोनों मादा? या जो दोनों के रमों में लिपटा हुआ हो (अभी पेट में हो)? क्या तुम उस वक्त मौजूद थे जब अल्लाह ने तुम्हें उस का हुक्म दिया था? पर उस से बड़ा जालिम कौन है जो अल्लाह पर बुहतान बान्धे झूट ताकि लोगों को इल्म के बगैर (जहालत से) गुमराह करे, बेशक अल्लाह जुल्म करने वाले लोगों को हिदायत नहीं देता। (144)

आप (स) फ़रमा दीजिए, जो वहि मुझे दी गई है उस में किसी खाने वाले पर कोई खाना हराम नहीं पाता मगर यह कि वह मुर्दार हो या बहता हुआ खून या सुव्वर का गोश्त, पर वह नापाक है, या गुनाह का (नाजाइज़ जबीहा) जिस पर गैर अल्लाह का नाम पुकारा गया हो, पर जो लाचार हो जाए, न नाफरमानी करने वाला हो और न सरकश हो तो बेशक तेरा रब बख्शने वाला निहायत मेहरबान है। (145) 

और उन लोगों पर जो यहूदी हुए, हम ने हराम कर दिया हर नाखुन वाला जानवर, और हम ने गाए और बकरी की चरबी उन पर हराम कर दी, सिवाए उस के जो उन की पीठ या अंतड़ियों से लगी हो या हड्डीयों के साथ मिली हो, यह हम ने उन को बदला दिया उन की सरकशी का, और बेशक हम सच्चे हैं। (146) 

पर अगर वह आप (स) को झुटलाएं तो आप (स) कहदें तुम्हारा रब वसीअ रहमत वाला है, और उस का अज़ाब मुजिमों की कौम से टाला नहीं जाता। (147) 

मुश्रिक जल्द कहेंगे कि अगर अल्लाह चाहता तो न हम शिर्क करते न हमारे बाप दादा, और न हम कोई चीज़ हराम ठहराते, इसी तरह (उन लोगों ने) झुटलाया जो उन से पहले थे यहां तक कि उन्हों ने हमारा अजाब चखा, आप (स) फ़रमा दीजिए क्या तुम्हारे पास कोई यकीनी बात है? तो उस को हमारे सामने ज़ाहिर करो, तुम सिर्फ गुमान के पीछे चलते हो और तुम सिर्फ अटकल चलाते हो। (148) 

आप (स) फ़रमा देंः अल्लाह ही की हुज्जत पूरी (गालिब) है, अगर वह चाहता तो तुम सब को हिदायत दे देता। (149) आप (स) फ़रमा देंः लाओ अपने गवाह जो गवाही दें कि अल्लाह ने यह हराम किया है, फिर अगर वह गवाही दे दें तो भी तुम उन के साथ गवाही न देना, और उन की खाहिशात की पैरवी न करना जिन्हों ने हमारी आयतों को झुटलाया और वह लोग आखिरत पर ईमान नहीं लाते और वह (माबूदाने बातिल को) अपने रब के बराबर ठहराते हैं। (150) 

आप (स) फ़रमा दें आओ मैं पढ़ कर सुनाऊँ जो हराम किया है तुम पर तुम्हारे रब ने कि उस के साथ शरीक न ठहराओ और वालिदैन के साथ नेक सुलूक करो, और कत्ल न करो अपनी औलाद को मुफ़लिसी (के डर) से, हम तुम्हें रिजक देते हैं और उन को (भी), और बेहयाइयों के करीब न जाओ जो उन में खुली हो और जो छुपी हो, और जिस जान को अल्लाह ने हुर्मत दी है उसे क़त्ल न करो मगर हक़ पर, यह तुम्हें इस का हुक्म दिया है ताकि तुम समझो। (151)

और यतीम के माल के करीब न जाओ मगर इस तरह कि वह बेहतरीन हो यहां तक कि वह अपनी जवानी को पहुंच जाए, और इन्साफ़ के साथ माप तोल पूरा करो, हम किसी को तकलीफ नहीं देते (बोझ नहीं डालते) मगर उस के मक़दूर के मुताबिक़, और जब बात करो तो इन्साफ़ की करो, खाह रिशतेदार (का मामला) हो। और अल्लाह का अहद पूरा करो, उस ने तुम्हें यह हुक्म दिया है ताकि तुम नसीहत पकड़ो। (152)

और यह मेरा रास्ता सीधा है, पर उस पर चलो और दूसरे रास्तों पर न चलो कि वह तुम्हें इस रास्ते से जुदा कर देंगे, उस ने तुम्हें इस का हुक्म दिया ताकि तुम परहेज़गारी इख्तियार करो| (153) 

फिर हम ने मूसा (अ) को किताब दी, उस पर अपनी नेमत पूरी करने को जो नेकोकार है, और हर चीज़ की तफ़सील के लिए, और हिदायत ओ रहमत के लिए, ताकि वह अपने रब से मुलाकात पर ईमान ले आएं। (154) 

और हम ने यह किताब उतारी है बरकत वाली, पर इस की पैरवी करो और परहेज़गारी इख्तियार करो ताकि तुम पर रह्म किया जाए। (155) 

कि (कहें) तुम कहो कि हम से पहले दो गिरोहों पर किताब उतारी गई, और यह कि हम उन के पढ़ने पढ़ाने से बेखबर थे। (156) 

या कहो कि अगर हम पर किताब उतारी जाती तो हम जियादा हिदायत पर होते उन से, सो तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ से रौशन दलील और हिदायत और रहमत आ गई, पर उस से बड़ा जालिम कौन है जो अल्लाह की आयतों को झुटलादे और उन से कतराए, हम उन लोगों को जल्द सज़ा देंगे जो कतराते हैं हमारी आयतों से, बुरा अज़ाब उस के बदले कि वह कतराते थे| (157)

क्या वह इन्तिज़ार कर रहे हैं मगर यह कि उन के पास फ़रिश्ते आएं या तुम्हारा रब आए या तुम्हारे रब की बाज़ निशानी आए, जिस दिन आएगी तुम्हारे रब की बाज़ निशानी, किसी के काम न आएगा उस का ईमान लाना जो पहले से ईमान न लाया था या अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई थी, आप (स) फ़रमा दें इन्तिज़ार करो हम (भी) मुन्तज़िर हैं। (158) 

बेशक जिन लोगों ने तफरका डाला अपने दीन में और गिरोह दर गिरोह हो गए, आप (स) का उन से कोई तअल्लुक नहीं, उन का मामला फ़क़त अल्लाह के हवाले है, फिर वह उन्हें जतला देगा वह जो कुछ करते थे। (159) 

जो शख्स कोई नेकी लाए तो उस के लिए उस का दस बराबर (दस गुना अजर) है, और जो कोई बुराई लाए तो वह बदला न पाएगा मगर उस के बराबर (सिर्फ उस के बराबर), और वह जुल्म न किए जाएंगे। (160) 

आप (स) कह दीजिए बेशक मुझे मेरे रब ने सीधे रास्ते की तरफ़ राह दिखाई है, दुरुस्त दीन, इब्राहीम (अ) की मिल्लत, जो एक (अल्लाह) के हो रहने वाले थे, और वह मुश्रिकों में से न थे| (161) 

आप (स) कह दें बेशक मेरी नमाज़ और मेरी कुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना अल्लाह के लिए है जो सारे जहानों का रब है। (162) 

उस का कोई शरीक नहीं, मुझे उसी का हुक्म दिया गया है, और मैं सब से पहला मुसलमान (फ़रमांबरदार) हूँ। (163) 

आप (स) कह दें क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और ख ढून्ढूं? और वही है हर शै का रव, हर शख्स जो कुछ कमाएगा (उस का गुनाह) सिर्फ उस के जिम्मे (होगा), कोई उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा, फिर तुम्हें अपने रब की तरफ़ लौटना है, पर वह तुम्हें जतला देगा जिस में तुम इखतिलाफ़ करते थे। (164) 

और वही है जिस ने तुम्हें जमीन में नाइब बनाया, और बुलन्द किए तुम में से बाज़ के दरजे बाज़ पर, ताकि वह तुम्हें उस में आजमाए जो उस ने तुम्हें दिया, बेशक तुम्हारा रब जल्द सज़ा देने वाला है, और वह बेशक यक़ीनन बख्शने वाला, निहायत मेहबान है। (165)

***

6. LIVESTOCK

(al-An'am)
In the name of God, the Gracious, the Merciful.

1. Praise be to God, Who created the heavens and the earth, and made the darkness and the light; yet those who disbelieve ascribe equals to their Lord.


2. It is He who created you from clay, then decided a term—a term determined by him. Yet you doubt.


3. He is God in the heavens and the earth. He knows what you keep secret and what you make public; and He knows what you earn.


4. Not one of their Lord’s signs comes to them, but they turn away from it.


5. They denied the truth when it has come to them; but soon will reach them the news of what they used to ridicule.


6. Have they not considered how many generations We destroyed before them? We had established them on earth more firmly than We established you, and We sent the clouds pouring down abundant rain on them, and We made rivers flow beneath them. But We destroyed them for their sins, and established other civilizations after them.


7. Had We sent down upon you a book on paper, and they had touched it with their hands, those who disbelieve would have said, “This is nothing but plain magic.”


8. And they say, “Why was an angel not sent down to him.” Had We sent down an angel, the matter would have been settled, and they would not have been reprieved.


9. Had We made him an angel, We would have made him a man, and confused them when they are already confused.


10. Messengers before you were ridiculed, but those who mocked them became besieged by what they ridiculed.


11. Say, “Travel the earth and observe the final fate of the deniers.”


12. Say, “To whom belongs what is in the heavens and the earth?” Say, “To God.” He has inscribed for Himself mercy. He will gather you to the Day of Resurrection, in which there is no doubt. Those who lost their souls do not believe.


13. To Him belongs whatever rests in the night and the day. He is the Hearing, the Knowing.


14. Say, “Shall I take for myself a protector other than God, Originator of the heavens and the earth, and it is He who feeds and is not fed?” Say, “I am instructed to be the first of those who submit.” And do not be among the idolaters.


15. Say, “I fear, should I defy my Lord, the punishment of a tremendous Day.”


16. Whoever is spared on that Day—He had mercy on him. That is the clear victory.


17. If God touches you with adversity, none can remove it except He. And if He touches you with good—He is Capable of everything.


18. He is the Supreme over His servants. He is the Wise, the Expert.


19. Say, “What thing is more solemn in testimony?” Say, “God is Witness between you and between me. This Quran was revealed to me, that I may warn you with it, and whomever it may reach. Do you indeed testify that there are other gods with God?” Say, “I myself do not testify.” Say, “He is but One god, and I am innocent of your idolatry.”


20. Those to whom We have given the Book recognize it as they recognize their own children; but those who have lost their souls do not believe.


21. Who does greater wrong than someone who fabricates lies against God, or denies His revelations? The wrongdoers will not succeed.


22. On the Day when We gather them all together, then say to the idolaters, “Where are your idols, those you used to claim?”


23. Then their only argument will be to say, “By God, our Lord, we were not idolaters.”


24. Look how they lied to themselves. And what they invented deserted them.


25. Among them are those who listen to you, but We place covers over their hearts, to prevent them from understanding it, and heaviness in their ears. Even if they see every sign, they will not believe in it. Until, when they come to you, to argue with you, those who disbelieve will say, “These are nothing but myths of the ancients.”


26. They keep others from it, and avoid it themselves; but they ruin only their own souls, and they do not realize.


27. If only you could see, when they are made to stand before the Fire; they will say, “If only we could be sent back, and not reject the revelations of our Lord, and be among the faithful.”


28. What they used to conceal before will become clear to them. And even if they were sent back, they would revert to what they were forbidden. They are liars.


29. And they say, “There is nothing but our life in this world, and we will not be resurrected.”


30. If only you could see, when they are stationed before their Lord. He will say, “Is this not real?” They will say, “Yes indeed, by our Lord.” He will say, “Then taste the torment for having disbelieved.”


31. Losers are those who deny the encounter with God. Then, when the Hour comes upon them suddenly, they will say, “Alas for us, how we have neglected it.” And they will carry their burdens on their backs—evil is what they carry.


32. The life of this world is nothing but game and distraction, but the Home of the Hereafter is better for those who are righteous. Do you not understand?


33. We know that what they say grieves you. It is not you they reject, but it is God's revelations that the wicked deny.


34. Other messengers before you were rejected, but they endured rejection and persecution until Our help came to them. There can be no change to God’s words. News of the Messengers has already reached you.


35. If you find their rejection hard to bear, then if you can, seek a tunnel into the earth, or a stairway into the heaven, and bring them a sign. Had God willed, He could have gathered them to guidance. So do not be of the ignorant.


36. Only those who listen will respond. As for the dead, God will resurrect them; then to Him they will be returned.


37. And they say, “If only a sign could come down to him from his Lord.” Say, “God is Able to send down a sign, but most of them do not know.”


38. There is no animal on land, nor a bird flying with its wings, but are communities like you. We neglected nothing in the Book. Then to their Lord they will be gathered.


39. Those who reject Our revelations are deaf and dumb, in total darkness. Whomever God wills, He leaves astray; and whomever He wills, He sets on a straight path.


40. Say, “Have you considered? if God's punishment came upon you, or the Hour overtook you, would you call upon any other than God, if you are sincere?”


41. In fact, it is Him you will call upon; and if He wills, he will remove what you called Him for, and you will forget what you idolized.


42. We sent messengers to communities before you, and We afflicted them with suffering and hardship, that they may humble themselves.


43. If only, when Our calamity came upon them, they humbled themselves. But their hearts hardened, and Satan made their deeds appear good to them.


44. Then, when they disregarded what they were reminded of, We opened for them the gates of all things. Until, when they delighted in what they were given, We seized them suddenly; and at once, they were in despair.


45. Thus the last remnant of the people who did wrong was cut off. And praise be to God, Lord of the Worlds.


46. Say, “Have you considered? If God took away your hearing and your sight, and set a seal on your hearts, what god other than God would restore them to you?” Note how We explain the revelations in various ways, yet they still turn away.


47. Say, “Have you considered? if God's punishment descended on you suddenly or gradually, would any be destroyed except the wrongdoing people?”


48. We sent the messengers only as bearers of good news and as warners. Those who believe and reform have nothing to fear, nor shall they grieve.


49. But as for those who reject Our revelations, torment will afflict them because of their defiance.


50. Say, “I do not say to you that I possess the treasuries of God, nor do I know the future, nor do I say to you that I am an angel. I only follow what is inspired to me.” Say, “Are the blind and the seeing alike? Do you not think?”


51. And warn with it those who fear to be gathered before their Lord—they have no protector or intercessor apart from him— perhaps they will grow in piety.


52. And do not drive away those who call upon their Lord, morning and evening, seeking His attention. You are not accountable for them in any way, nor are they accountable for you in any way. If you drive them away, you would be one of the unjust.


53. Thus We try some of them by means of others, that they may say, “Are these the ones whom God has favored from among us?” Is God not aware of the appreciative?


54. When those who believe in Our revelations come to you, say, “Peace be upon you, your Lord has prescribed mercy for Himself. Whoever among you does wrong out of ignorance, and then repents afterwards and reforms—He is Forgiving and Merciful.”


55. Thus We explain the revelations, and expose the path of the unrighteous.


56. Say, “I am forbidden from worshiping those you pray to besides God.” Say, “I will not follow your desires; else I would be lost and not be of those guided.”


57. Say, “I stand on clear evidence from my Lord, and you have rejected Him. I do not possess what you seek me to hasten; the decision belongs solely to God. He states the truth, and He is the Best of Judges.”


58. Say, “If I possessed what you seek me to hasten, the matter between you and me would have been settled. God is well aware of the unjust.”


59. With Him are the keys of the unseen. None knows them except He. And He knows everything on land and in the sea. Not a leaf falls without His knowledge, nor is there a grain in the darkness of the earth, nor is there anything wet or dry, but it is in a clear record.


60. It is He Who takes you by night, and He knows what you earn by day. Then He raises you up in it, until a fixed term is fulfilled. Then to Him is your return, then He will inform you of what you used to do.


61. He is the Conqueror over His servants, and He sends guardians over you, until, when death overtakes one of you, Our envoys take him away, and they never fail.


62. Then they are brought back to God, their true Master. Unquestionably, His is the judgment, and He is the Swiftest of reckoners.


63. Say, “Who delivers you from the darkness of land and sea?” You call upon Him humbly and inwardly: “If He delivers us from this, We will surely be among the thankful.”


64. Say, “It is God who delivers you from it, and from every disaster. Yet then you associate others with Him.”


65. Say, “He is Able to send upon you an affliction, from above you, or from under your feet. Or He can divide you into factions, and make you taste the violence of one another. Note how We explain the revelations, so that they may understand.”


66. But your people rejected it, though it is the truth. Say, “I am not responsible for you.”


67. For every happening is a finality, and you will surely know.


68. When you encounter those who gossip about Our revelations, turn away from them, until they engage in another topic. But should Satan make you forget, do not sit after the recollection with the wicked people.


69. The righteous are in no way accountable for them; it is only a reminder, that they may be careful.


70. So leave alone those who take their religion for play and pastime, and whom the worldly life has deceived. But remind with it, lest a soul becomes damned on account of what it has earned. It has no helper or intercessor besides God. Even if it offers every equivalent, none will be accepted from it. These are the ones who are delivered to perdition by their actions. They will have a drink of scalding water, and a painful punishment, because they used to disbelieve.


71. Say, “Shall we invoke besides God something that can neither benefit us nor harm us, and turn back on our heels after God has guided us, like someone seduced by the devils and confused on earth, who has friends calling him to guidance: 'Come to us'?” Say, “The guidance of God is the guidance, and we are commanded to surrender to the Lord of the Universe.”


72. “And to perform the prayers, and to revere Him; it is to Him that you will be gathered.”


73. It is He who created the heavens and the earth in truth. On the Day when He says: “Be,” it will be. His saying is the truth, and His is the sovereignty on the Day when the trumpet is blown. The Knower of secrets and declarations. He is the Wise, the Expert.


74. Abraham said to his father Azar, “Do you take idols for gods? I see that you and your people are in evident error.”


75. Thus We showed Abraham the empire of the heavens and the earth, that he might be one of those with certainty.


76. When the night fell over him, he saw a planet. He said, “This is my lord.” But when it set, he said, “I do not love those that set.”


77. Then, when he saw the moon rising, he said, “This is my lord.” But when it set, he said, “If my Lord does not guide me, I will be one of the erring people.”


78. Then, when he saw the sun rising, he said, “This is my lord, this is bigger.” But when it set, he said, “O my people, I am innocent of your idolatry.


79. I have directed my attention towards Him Who created the heavens and the earth—a monotheist—and I am not of the idolaters.”


80. And his people argued with him. He said, “Do you argue with me about God, when He has guided me? I do not fear what you associate with Him, unless my Lord wills it. My Lord comprehends all things in knowledge. Will you not reconsider?


81. And why should I fear those you associate with Him, and you do not fear associating others with God for which He sent down to you no authority? Which side is more entitled to security, if you are aware?”


82. Those who believe, and do not obscure their faith with wrongdoing—those will have security, and they are guided.


83. That was Our argument which We gave to Abraham against his people. We elevate by degrees whomever We will. Your Lord is Wise and Informed.


84. And We gave him Isaac and Jacob— each of them We guided. And We guided Noah previously; and from his descendants David, and Solomon, and Job, and Joseph, and Moses, and Aaron. Thus We reward the righteous.


85. And Zechariah, and John, and Jesus, and Elias—every one of them was of the upright.


86. And Ishmael, and Elijah, and Jonah, and Lot—We favored each one of them over all other people.


87. And of their ancestors, and their descendants, and their siblings—We chose them, and guided them to a straight path.


88. Such is God’s guidance. He guides with it whomever He wills of His servants. Had they associated, their deeds would have gone in vain.


89. Those are they to whom We gave the Book, and wisdom, and prophethood. If these reject them, We have entrusted them to others who do not reject them.


90. Those are they whom God has guided, so follow their guidance. Say, “I ask of you no compensation for it. It is just a reminder for all mankind.”


91. They do not value God as He should be valued, when they say, “God did not reveal anything to any human being.” Say, “Who revealed the Scripture which Moses brought—a light and guidance for humanity?” You put it on scrolls, displaying them, yet concealing much. And you were taught what you did not know—neither you, nor your ancestors. Say, “God,” then leave them toying away in their speculation.


92. This too is a Scripture that We revealed— blessed—verifying what preceded it, that you may warn the Mother of Cities and all around it. Those who believe in the Hereafter believe in it, and are dedicated to their prayers.


93. Who does greater wrong than someone who invents falsehood against God, or says, “It was revealed to me,” when nothing was revealed to him, or says, “I will reveal the like of what God revealed”? If only you could see the wrongdoers in the floods of death, as the angels with arms outstretched: “Give up your souls. Today you are being repaid with the torment of shame for having said about God other than the truth, and for being too proud to accept His revelations.”


94. “You have come to Us individually, just as We created you the first time, leaving behind you everything We gave you. And We do not see with you your intercessors— those you claimed were your partners. The link between you is cut, and what you had asserted has failed you.”


95. It is God Who splits the grain and the seed. He brings the living from the dead, and He brings the dead from the living. Such is God. So how could you deviate?


96. It is He Who breaks the dawn. And He made the night for rest, and the sun and the moon for calculation. Such is the disposition of the Almighty, the All- Knowing.


97. And it is He Who created the stars for you, that you may be guided by them in the darkness of land and sea. We thus explain the revelations for people who know.


98. And it is He who produced you from a single person, then a repository, then a depository. We have detailed the revelations for people who understand.


99. And it is He who sends down water from the sky. With it We produce vegetation of all kinds, from which We bring greenery, from which We produce grains in clusters. And palm-trees with hanging clusters, and vineyards, and olives, and pomegranates—similar and dissimilar. Watch their fruits as they grow and ripen. Surely in this are signs for people who believe.


100. Yet they attributed to God partners— the sprites—although He created them. And they invented for Him sons and daughters, without any knowledge. Glory be to Him. He is exalted, beyond what they describe.


101. Originator of the heavens and the earth—how can He have a son when He never had a companion? He created all things, and He has knowledge of all things.


102. Such is God, your Lord. There is no god except He, the Creator of all things, so worship Him. He is responsible for everything.


103. No vision can grasp Him, but His grasp is over all vision. He is the Subtle, the Expert.


104. “Insights have come to you from your Lord. Whoever sees, it is to the benefit of his soul, and whoever remains blind, it is to its detriment. I am not a guardian over you.”


105. We thus diversify the revelations, lest they say, “You have studied,” and to clarify them for people who know. 106. Follow what was revealed to you from your Lord. There is no god but He. And turn away from the polytheists.


107. Had God willed, they would not have practiced idolatry. We did not appoint you as a guardian over them, and you are not a manager over them.


108. Do not insult those they call upon besides God, lest they insult God out of hostility and ignorance. We made attractive to every community their deeds. Then to their Lord is their return; and He will inform them of what they used to do.


109. They swear by God, with their most solemn oaths, that if a miracle were to come to them, they would believe in it. Say, “The miracles are only with God.” But how do you know? Even if it did come, they still would not believe.


110. And We turn away their hearts and their visions, as they refused to believe in it the first time, and We leave them blundering in their rebellion.


111. Even if We sent down the angels to them, and the dead spoke to them, and We gathered all things before them, they still would not believe, unless God wills; but most of them are ignorant.


112. Likewise, We have assigned for every prophet an enemy—human and jinn devils— inspiring one another with fancy words in order to deceive. But had your Lord willed, they would not have done it. So leave them to their fabrications.


113. So that the hearts of those who do not believe in the Hereafter may incline to it, and be content with it, and that they may perpetrate whatever they perpetrate.


114. “Shall I seek a judge other than God, when He is the One who revealed to you the Book, explained in detail?” Those to whom We gave the Book know that it is the truth revealed from your Lord. So do not be of those who doubt.


115. The Word of your Lord has been completed, in truth and justice. There is no changing to His words. He is the Hearer, the Knower.


116. If you were to obey most of those on earth, they would divert you from God’s path. They follow nothing but assumption, and they only conjecture.


117. Your Lord knows best who strays from His path, and He knows best the guided ones.


118. So eat of that over which the Name of God was pronounced, if you indeed believe in His revelations.


119. And why should you not eat of that over which the Name of God is pronounced, when He has detailed for you what is prohibited for you, unless you are compelled by necessity? Many lead astray with their opinions, through lack of knowledge. Your Lord knows best the transgressors.


120. So abandon sin, outward and inward. Those who commit sins will be repaid for what they used to perpetrate.


121. And do not eat from that over which the Name of God was not pronounced, for it is abomination. The devils inspire their followers to argue with you; but if you obey them, you would be polytheists.


122. Is he who was dead, then We gave him life, and made for him a light by which he walks among the people, like he who is in total darkness, and cannot get out of it? Thus the doings of disbelievers are made to appear good to them.


123. And thus We set up in every city its leading wicked sinners, to conspire in it, but they conspire only against themselves, and they do not realize it.


124. When a sign comes to them, they say, “We will not believe unless we are given the like of what was given to God’s messengers.” God knows best where to place His message. Humiliation from God and severe torment will afflict the criminals for their scheming.


125. Whomever God desires to guide, He spreads open his heart to Islam; and whomever He desires to misguide, He makes his heart narrow, constricted, as though he were climbing up the sky. God thus lays defilement upon those who do not believe.


126. This is the straight path of your Lord. We have explained the revelations in detail for people who recollect.


127. For them is the Home of Peace with their Lord, and He is their Master— because of what they used to do.


128. On the Day when He gathers them all together: “O assembly of jinn, you have exploited multitudes of humans.” Their adherents among mankind will say, “Our Lord, we have profited from one another, but we have reached the term that you have assigned for us.” He will say, “The Fire is your dwelling, wherein you will remain, except as God wills. Your Lord is Wise and Informed.


129. Thus We make some of the wrongdoers befriend one another, because of what they used to do.


130. “O assembly of jinn and humans, did there not come to you messengers from among you, relating to you My revelations, and warning you of the meeting of this Day of yours?” They will say, “We testify against ourselves.” The life of the world seduced them. They will testify against themselves that they were disbelievers.


131. That is because your Lord would not destroy towns for injustice while their inhabitants are unaware.


132. They all have ranks according to what they did; and your Lord is not unaware of what they do.


133. Your Lord is the Rich Beyond Need, the Possessor of Mercy. If He wills, he can do away with you, and substitute whomever He wills in your place, just as He produced you from the descendants of another people.


134. What you are promised is coming, and you cannot thwart it.


135. Say, “O my people! Work according to your ability, and so will I.” You will come to know to whom will belong the sequel of the abode.” The wrongdoers will not prevail.


136. And they set aside for God a share of the crops and the livestock He created, and say, “This is for God,” according to their claim, “and this is for our idols.” But the share of their idols does not reach God, yet the share of God reaches their idols. Evil is their judgment.


137. Likewise, their idols entice many idolaters to kill their children, in order to lead them to their ruin, and confuse them in their religion. Had God willed, they would not have done it; so leave them to their fraud.


138. And they say, “These animals and crops are restricted; none may eat them except those we permit,” by their claims, and animals whose backs are forbidden, and animals over which they do not pronounce the name of God—fabricating lies against Him. He will repay them for what they used to invent.


139. And they say, “What lies in the wombs of these animals is exclusively for our males, and prohibited to our wives.” But if it is stillborn, they can share in it. He will surely punish them for their allegations. He is Wise and Knowing.


140. Lost are those who kill their children foolishly, with no basis in knowledge, and forbid what God has provided for them— innovations about God. They have gone astray. They are not guided.


141. It is He who produces gardens, both cultivated and wild, and date-palms, and crops of diverse tastes, and olives and pomegranates, similar and dissimilar. Eat of its fruit when it yields, and give its due on the day of its harvest, and do not waste. He does not love the wasteful.


142. Among the livestock are some for transportation, and some for clothing. Eat of what God has provided for you, and do not follow the footsteps of Satan. He is to you an open enemy.


143. Eight pairs: two of the sheep, and two of the goats. Say, “Did He forbid the two males, or the two females, or what the wombs of the two females contain? Inform me with knowledge, if you are truthful.”


144. And two of the camels, and two of the cattle. Say, “Did He forbid the two males, or the two females, or what the wombs of the two females contain? Were you present when God enjoined this upon you?” Who does greater wrong than he who invents lies and attributes them to God, in order to mislead people without knowledge? God does not guide the wicked people.


145. Say, “In what was revealed to me, I find nothing forbidden to a consumer who eats it, except carrion, or spilled blood, or the flesh of swine—because it is impure— or a sinful offering dedicated to other than God. But if someone is compelled by necessity, without being deliberate or malicious— your Lord is Forgiving and Merciful.


146. For the Jews We forbade everything with claws. As of cattle and sheep, We forbade them their fat, except what adheres to their backs, or the entrails, or what is mixed with bone. This is how We penalized them for their inequity. We are indeed truthful.


147. If they accuse you of lying, say, “Your Lord is Possessor of infinite mercy, but His wrath cannot be averted from the guilty people.”


148. The polytheists will say, “Had God willed, we would not have practiced idolatry, nor would have our forefathers, nor would we have prohibited anything.” Likewise those before them lied, until they tasted Our might. Say, “Do you have any knowledge that you can produce for us? You follow nothing but conjecture, and you only guess.”


149. Say, “To God belongs the conclusive argument. Had He willed, He would have guided you all.”


150. Say, “Produce your witnesses who would testify that God has prohibited this.” If they testify, do not testify with them. And do not follow the whims of those who deny Our revelation, and those who do not believe in the Hereafter, and those who equate others with their Lord.


151. Say, “Come, let me tell you what your Lord has forbidden you: that you associate nothing with Him; that you honor your parents; that you do not kill your children because of poverty—We provide for you and for them; that you do not come near indecencies, whether outward or inward; and that you do not kill the soul which God has sanctified—except in the course of justice. All this He has enjoined upon you, so that you may understand.”


152. And do not come near the property of the orphan, except with the best intentions, until he reaches maturity. And give full weight and full measure, equitably. We do not burden any soul beyond its capacity. And when you speak, be fair, even if it concerns a close relative. And fulfill your covenant with God. All this He has enjoined upon you, so that you may take heed.


153. This is My path, straight, so follow it. And do not follow the other paths, lest they divert you from His path. All this He has enjoined upon you, that you may refrain from wrongdoing.


154. Then We gave Moses the Scripture, perfect for the righteous, and explaining everything clearly, and a beacon, and mercy, that they may believe in the encounter with their Lord.


155. This too is a blessed Scripture that We revealed; so follow it, and be righteous, that you may receive mercy.


156. Lest you say, “The Scripture was revealed only to two parties before us, and we were unaware of their teachings.”


157. Or lest you say, “Had the Scripture been revealed to us, we would have been better guided than they.” Clarification has come to you from your Lord, and guidance, and mercy. Who, then, does greater wrong than he who gives the lie to God's messages, and turns away from them? We will repay those who turn away from Our messages with the worst kind of punishment, because of their turning away.


158. Are they waiting for anything but for the angels to come to them, or for your Lord to arrive, or for some of your Lord’s signs to come? On the Day when some of your Lord’s signs come, no soul will benefit from its faith unless it had believed previously, or had earned goodness through its faith. Say, “Wait, we too are waiting.”


159. As for those who divided their religion, and became sects—you have nothing to do with them. Their case rests with God; then He will inform them of what they used to do.


160. Whoever comes up with a good deed will have ten times its like; and whoever comes up with an evil deed will be repaid only with its equivalent—they will not be wronged.


161. Say, “My Lord has guided me to a straight path, an upright religion, the creed of Abraham, the monotheist, and he was no polytheist.”


162. Say, “My prayer and my worship, and my life and my death, are devoted to God, the Lord of the Worlds.


163. No associate has He. Thus I am commanded, and I am the first of those who submit.


164. Say, “Am I to seek a Lord other than God, when He is the Lord of all things?” No soul gets except what it is due, and no soul bears the burdens of another. Then to your Lord is your return, then He will inform you regarding your disputes.


165. It is He who made you successors on the earth, and raised some of you in ranks over others, in order to test you through what He has given you. Your Lord is Quick in retribution, and He is Forgiving and Merciful.          


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