Quran-E-Pak

सूरा-अल-क़सस | Surah 28

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सूरा-अल-क़सस

| मक्का कालीन | आयत 88 | 

किस्से 

सूरा-अल-क़सस | Surah 28

अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहरबान, रहम करने वाला है। ता-सीम-मीम| (1) 

यह वाजेह किताब (कुरआन) की आयतें है। (2) 

हम तुम पर पढ़ते हैं (तुम्हें सुनाते है) कुछ अहवाले मूसा (अ) और फिरऔन का ठीक ठीक, उन लोगों के लिए जो ईमान रखते हैं। (3) 

बेशक फ़िरऔन मुल्क में सरकशी कर रहा था, और उस ने कर दिया था उस के लोगों को अलग अलग गिरोह, उन में से एक गिरोह (बनी इस्राईल) को कमजोर कर रखा था उन के बेटों को जुबह करता, और जिन्दा छोड़ देता था उन की औरतों (बेटियों) को, बेशक वह मुफसिदों में से (फ़सादी) था। (4) 

और हम चाहते थे कि उन लोगों पर एहसान करें जो मुल्क में कमजोर कर दिए गए थे, और हम उन्हें पेश्वा बनाएं, और हम उन्हें (मुल्क का) वारिस बनाएं। (5) 

और हम उन्हें हुकूमत दें मुल्क में| और हम फ़िरऔन और हामान और उन के लशकर को उन (कमज़ोरों के हाथों) दिखा दें जिस चीज़ से वह डरते थे। (6) 

और हम ने मूसा (अ) की माँ को इलहाम किया कि वह उस को दूध पिलाती रह, फिर जब उस पर (उस के बारे में) डरे तो उसे दर्या में डाल दे, और न डर और न गम खा, बेशक हम उसे तेरी तरफ़ लौटा देंगे, और उसे बना देंगे रसूलों में से| (7) 

फिर फिरऔन के घर वालों ने उसे उठा लिया ताकि (आख़िर कार) वह उन के लिए दुश्मन और गम का बाइस हो, बेशक फ़िरऔन और हामान और उन के लशकर खताकार थे। (8) 

और कहा फ़िरऔन की बीवी ने, यह आँखों की ठंडक है मेरे लिए और तेरे लिए इसे कतल न कर, शायद हमें नफ़ा पहुंचाए या हम इसे बेटा बनालें, और वह हक़ीक़ते हाल नहीं जानते थे। (9) 

और मूसा (अ) की माँ का दिल बेक़रार हो गया, तहक़ीक़ क़रीब था कि वह उस को जाहिर कर देती अगर हम ने उस के दिल पर गिरह न लगाई होती कि वह यकीन करने वालों में से रहे। (10) 

और मूसा (अ) की वालिदा ने उस की बहन को कहा कि उस के पीछे जा, फिर उसे दूर से देखती रह, और वह हकीकते हाल न जानते थे। (11) 

और हम ने पहले से उस से दाइयों को रोक रखा था, तो मूसा (अ) की बहन बोली, क्या मैं तुम्हें एक घर वाले बतलाऊँ जो तुम्हारे लिए उस की पर्वरिश करें और वह उस के खैर खाह हो। (12) 

तो हम ने उस को उस की माँ की तरफ़ लौटा दिया, ताकि ठंडी रहें उस की आँख, और वह गमगीन न हो, और ताकि जान ले कि अल्लाह का वादा सच्चा है, और लेकिन उन के बेशतर नहीं जानते। (13) 

और जब (मूसा अ) अपनी जवानी को पहुंचा और पूरी तरह तवाना हो गया तो हम ने उसे हिम्मत और इल्म अता किया, और हम नेकी करने वालों को इसी तरह बदला दिया करते हैं। (14)

और वह शहर में दाखिल हुआ जब कि उस के लोग गफलत में थे तो उस ने दो आदमियों को बाहम लड़ते हुए पाया, एक उस की बिरादरी से था और दूसरा उस के दुश्मनों में से था, तो जो उस की बिरादरी से था उस ने उस (के । मुकाबले) पर जो उस के दुश्मनों में से था मूसा (अ) से मदद मांगी तो मूसा (अ) ने उस को एक मुक्का मारा फिर उस का काम तमाम कर दिया, उस (मूसा अ) ने कहा यह काम शैतान (की हरकत) से हुआ, बेशक वह दुश्मन है खुला बहकाने वाला। (15) 

उस ने अरज़ की ऐ मेरे रब! मैं ने अपनी जान पर जुल्म किया, पर मुझे बख्शदे, तो उस ने उसे बख्श दिया, बेशक वही बख्शने वाला, निहायत मेहरबान (16) 

उस ने कहा, ऐ मेरे रव! जैसा कि तू ने मुझ पर इन आम किया है तो मैं हरगिज़ न होंगा (कभी) मुग्रिमों का मददगार| (17) 

पर शहर में उस की सुबह हुई डरते हुए इन्तिजार करते हुए कि देखें अब किया होता है) तो नागहां वही जिस ने कल उस से मदद मांगी थी (देखा कि) वह फिर उस से फर्याद कर रहा है। मूसा (अ) ने उस को कहा बेशक तू गुमराह है खुला। (18) 

फिर जब उस ने चाहा कि उस पर हाथ डाले जो उन दोनों का दुश्मन था, तो उस ने कहा ऐ मूसा (अ)! क्या तू चाहता है कि तू मुझे कत्ल कर दे जैसे तू ने कल एक आदमी को क़त्ल किया था, तू सिर्फ (यही) चाहता है कि तू इस सरज़मीन में जबरदस्ती करता फिरे और तू नहीं चाहता कि मुसलिहीन (इस्लाह करने वालों में से हो। (19)

और एक आदमी शहर के परले सिरे से दौड़ता हुआ आया, उस ने कहा, ऐ मूसा (अ)! बेशक सरदार तेरे बारे में मशवरा कर रहे हैं ताकि तुझे क़त्ल कर डालें, पर तू (यहां से निकल जा, बेशक मैं तेरे खैर ख्वाहों में से हूँ। (20) 

पर वह निकला वहां से डरते हुए और इन्तिज़ार करते हुए (कि देखें क्या होता है), उस ने दुआ की कि ऐ मेरे परवरदिगार! मुझे ज़ालिमों की कौम से बचाले | (21) 

और जब उस ने मदयन की तरफ़ रुख किया तो कहा उम्मीद है मेरा रख मुझे सीधा रास्ता दिखाएगा। (22) 

और जब वह मदयन के पानी (के कुंए) पर आया तो उस ने लोगों के एक गिरोह को पानी पिलाते हुए पाया, और उस ने देखा दो औरतें उन से अलाहिदा (अपनी बकरियां रोके हुए (खड़ी) हैं, उस ने कहा तुम्हारा क्या हाल है? वह बोलीं हम पानी नहीं पिलातीं जब तक चरवाहे (अपने जानवरों को पानी पिला । कर) वापस न ले जाएं और हमारे अब्बा बूढ़े हैं। (23) 

तो उस ने उन की (बकरियों को) पानी पिलाया। फिर साए की तरफ़ फिर आया, फिर अरज़ किया ऐ मेरे परवरदिगार! बेशक जो नेमत तू मेरी तरफ़ उतारे मैं उस का मोहताज हूँ। (24) 

फिर उन दोनों में से एक उस के पास आई शर्म से चलती हुई, वह बोली, बैशक मेरे वालिद तुम्हें बुला रहे हैं कि तुम्हें उस का सिला दें जो तू ने हमारे लिए (बकरियों को) पानी पिलाया है, पर जब मूसा (अ) उस (बाप) के पास आया और उस से अहवाल बयान किया तो उस ने कहा डरो नहीं, तुम ज़ालिमों की कौम से बच आए हो। (25) 

उन में से एक बोली, ऐ मेरे बाप इसे मुलाज़िम रख लें, बेशक बेहतरीन मुलाज़िम जिसे तुम रखो (वही हो सकता है, जो ताक़तवर अमानत दार हो। (26) 

(बाप) ने कहा मैं चाहता हूँ कि तुम से अपनी इन दो बेटियों में से एक का निकाह इस शर्त पर कर दूं कि तुम आठ (8) साल मेरी मुलाज़िमत करो, अगर दस (10) साल पूरे करलो तो (वह) तुम्हारी तरफ़ से (नेकी) ही गी, मैं नहीं चाहता कि मैं तुम पर मशक्कत डालूं, अगर अल्लाह ने चाहा तो अनक़रीब तुम मुझे खुश मामला लोगों में से पाओगे| (27) 

मूसा (अ) ने कहा यह मेरे दरमियान और तुम्हारे दरमियान (अहद) है, मैं दोनों में से जो मुद्दत पूरी करूँ मुझ पर कोई मुतालबा नहीं, और अल्लाह गवाह है उस पर जो हम कह रहे हैं। (28) 

फिर जब मूसा (अ) ने अपनी मुद्दत पूरी कर दी तो अपनी घर वाली (बीवी) को साथ ले कर चला, उस ने देखी कोहे तूर की तरफ से एक आग, उस ने अपने घर वालों से कहा तुम ठहरो, बेशक मैं ने आग देखी है, शायद मैं उस से तुम्हारे लिए (रास्ते की) कोई ख़बर या आग की चिंगारी लाऊँ ताकि तुम आग तापो। (29) 

फिर जब वह उस के पास आया तो निदा (आवाज) दी गई दाएं मैदान के किनारे से, बरकत वाली जगह में, एक दरख्त (के दरमियान) से, कि ऐ मूसा (अ)! बेशक मैं अल्लाह हूँ, तमाम जहानों का परवरदिगार (30) 

और यह कि तू अपना असा (जमीन पर) डाल, फिर जब उस ने उसे देखा लहराते हुए, गोया कि वह सांप है, वह पीठ फेर कर लौटा, और पीछे मुड़ कर भी न देखा, (अल्लाह ने फ़रमाया) ऐ मूसा (अ)! आगे आ और डर नहीं, बेशक तू अमन पाने वालों में से है। (31) 

तू अपना हाथ अपने गरेबान में डाल, वह सफ़ेद रोशन हो कर निकलेगा, किसी ऐब के बगैर, फिर अपना बाजू खौफ़ (दूर होने की गरज) से अपनी तरफ़ मिला लेना (सुकेड़ लेना), पर (असा और यदे बैज़ा) दोनों दलीलें हैं तेरे रब की तरफ़ से फ़िरऔन और उस के सरदारों की तरफ, बेशक वह एक नाफ़रमान गिरोह है। (32) 

उस ने कहा ऐ मेरे रब! बेशक मैं ने उन में से एक शख्स को मार डाला, सो मैं डरता हूँ कि वह मुझे क़त्ल कर देंगे। (33) 

और मेरे भाई हारून (अ) ज़बान (के एतिबार से) मुझ से ज़ियादा फ़सीह है, सो उसे मेरे साथ मददगार (बना कर) भेज दे कि वह मेरी तस्दीक करे, बेशक मैं डरता हूँ कि वह मुझे झुटलाएंगे। (34) 

(अल्लाह ने) फ़रमाया हम अभी तेरे भाई से तेरे बाजू को मजबूत कर देंगे और तुम दोनों के लिए अता करेंगे गल्बा, पर वह हमारी निशानियों के सबब तुम दानों तक न पहुंच सकेंगे, तुम दोनों और जिस ने तुम्हारी पैरवी की गालिब रहोगे। (35) 

फिर जब मूसा (अ) हमारी वाजेह निशानियों के साथ उन के पास आया तो वह बोले यह कुछ भी नहीं मगर एक इतिरा किया हुआ (घड़ा हुआ) जादू है, और हम ने ऐसी बात अपने अगले बाप दादा से नहीं सुनी है। (36) 

और मूसा (अ) ने कहा मेरा रब उस को खूब जानता है जो उस के पास से हिदायत लाया है, और जिस के लिए आखिरत का अच्छा घर (जन्नत) है, बेशक जालिम (कभी) फलाह (कामयाबी) नहीं पाएंगे। (37)

और फ़िरऔन ने कहा, ऐ सरदारो, मैं नहीं जानता तुम्हारे लिए अपने सिवा कोई माबूद, पर ऐ हामान! मेरे लिए मिट्टी (की ईंटों) पर आग जला, फिर (उन पुख्ता ईंटों से) मेरे लिए तैयार कर एक बुलन्द महल, ताकि मैं (वहां से) मूसा (अ) के माबूद को झांकू, और मैं तो उसे झूटों में से समझता हूँ। (38) 

और वह और उस का लशकर दुनिया में नाहक मगरूर हो गए और वह समझ बैठे कि वह हमारी तरफ़ नहीं लौटाए जाएंगे। (39) 

तो हम ने उसे और उस के लशकर को पकड़ा और उन्हें दर्या में फेंक दिया, सो देखो कैसा जालिमों का अन्जाम हुआ? (40) 

और हम ने उन्हें सरदार बनाया जो जहन्नम की तरफ़ बुलाते रहे, और रोजे कियामत वह न मदद दिए जाएंगे (उन की मदद न होगी। (41)

और हम ने इस दुनिया में उन के पीछे लानत लगा दी और रोजे कियामत वह बदहाल लोगों में से होंगे। (42)

और तहकीक हम ने मूसा (अ) को तौरेत अता की उस के बाद कि हम ने पहली उम्मतें हलाक की, लोगों के लिए बसीरत (आँखें खोलने वाली) और हिदायत ओ रहमत, ताकि वह नसीहत पकड़ें। (43) 

और आप (स) (कोहे तूर के) मगरिबी जानिब न थे जब हम ने मूसा (अ) की तरफ़ वहि भेजी और आप (स) (उस वाके के) देखने वालों में से न थे। (44) 

और लेकिन हम ने बहुत सी उम्मतें पैदा की, फिर तवील हो गई उन की मुद्दत, और आप (स) अहले मदयन में रहने वाले न थे कि उन पर हमारे अहकाम पढ़ते (उन्हें हमारे अहकाम सुनाते) लेकिन हम थे रसूल बनाकर भेजने वाले| (45) 

और आप (स) तूर के किनारे न थे जब हम ने पुकारा, और लेकिन रहमत आप (स) के रब से (कि नुबुव्वत अता हुई) ताकि आप (स) इस कौम को डर सुनाएं जिस के पास आप (स) से पहले कोई डराने वाला नहीं आया, ताकि वह नसीहत पकड़ें। (46) 

और एसा न हो कि उन्हें उन के आमाल के सबब कोई मुसीबत पहुंचे तो वह कहतेः ऐ हमारे रब! तू ने हमारी तरफ़ कोई रसूल क्यों न भेजा! पर हम तेरे अहकाम की पैरवी करते और हम होते ईमान लाने वालों में से। (47) 

फिर जब उन के पास हमारी तरफ़ से हक आगया, कहने लगे कि क्यों न (मुहम्मद (स) को) दिया गया जैसा मूसा (अ) को दिया गया था, क्या उन्हों ने उस का इन्कार नहीं किया? जो उस से कब्ल मूसा (अ) को दिया गया, उन्हों ने कहा वह दोनों जादू हैं, वह दोनों एक दूसरे के पुश्त पनाह हैं, और उन्हों ने कहा बेशक हम हर एक का इन्कार करने वाले हैं। (48) 

आप (स) फ़रमा दें तुम अल्लाह के पास से कोई किताब लाओ जो इन दोनों (कुरआन और तौरेत) से ज़ियादा हिदायत बखश्ने वाली हो कि मैं उस की पैरवी करूं, अगर तुम सच्चे हो। (49) 

फिर अगर वह आप (स) की बात कुबूल न करें तो जान लें कि वह सिर्फ अपनी खाहिशात की पैरवी करते हैं, और उस से जियादा कौन गुमराह है जिस ने अपनी खाहिश की पैरवी की, अल्लाह की हिदायत के बगैर, बेशक अल्लाह ज़ालिम लोगों को हिदायत नहीं देता। (50)

और अलबत्ता हम ने मुसलसल भेजा उन के लिए अपना कलाम, ताकि वह नसीहत पकड़ें। (51) 

जिन लोगों को हम ने उस से कब्ल किताब दी वह इस कुरआन पर ईमान लाते हैं। (52) 

और जब उन के सामने (कुरआन) पढ़ा जाता है तो वह कहते हैं हम इस पर ईमान लाए, बेशक यह हक़ है हमारे रब की तरफ़ से, बेशक हम थे पहले से फ़रमांबरदार| (53) 

यही लोग हैं जिन्हें उन का अजर दोहरा दिया जाएगा इस लिए कि उन्हों ने सब्र किया और वह भलाई से बुराई को दूर करते हैं और जो हम ने उन्हें दिया वह उस में से खर्च करते हैं। (54) 

और जब वह बेहूदा बात सुनते हैं तो उस से किनारा करते हैं, और कहते हैं कि हमारे लिए हमारे अमल तुम्हारे लिए तुम्हारे अमल, तुम पर सलाम हो, हम जाहिलों से (उलझना) नहीं चाहते। (55) 

बेशक तुम जिस को चाहो हिदायत नहीं दे सकते, बलकि अल्लाह जिस को चाहता है हिदायत देता है, और हिदायत पाने वालों को वह खूब जानता है। (56)

और वह कहते है अगर हम तुम्हारे साथ हिदायत की पैरवी करें तो हम अपनी सरजमीन से उचक लिए जाएंगे| क्या हम ने उन्हें हुर्मत वाले मुकामे अमन में ठिकाना नहीं दिया, उस की तरफ खिंचे चले आते हैं। फल हर किस्म के, हमारी तरफ से बतौर रिजक, लेकिन उन में अक्सर नहीं जानते। (57)

और कितनी (ही) बस्तियां हम ने हलाक कर दी जो अपनी आमदनी और गुजर बसर पर इतराती थीं, सो यह हैं उन के मस्कन, न आबाद हुए उन के बाद मगर कम, और हम ही हुए वारिस (58) 

और तुम्हारा रब नहीं है बस्तियों को हलाक करने वाला, जब तक उस की बड़ी बस्ती में कोई रसूल न भेज दे, वह उन पर हमारी आयात पढे, और हम बस्तियों को हलाक करने वाले नहीं जब तक उन के रहने वाले ज़ालिम (न) हों। (59) 

और तुम्हें जो कोई चीज़ दी गई है सो वह (सिर्फ) दुनिया की जिन्दगी का सामान और उस की जीनत है, और जो अल्लाह के पास है वह बेहतर है और तादेर बाकी रहने वाला है, सो क्या तुम समझते नहीं? (60) 

सो जिस से हम ने अच्छा वादा किया फिर वह उस को पाने वाला है, क्या वह उस शख्स की तरह है जिसे हम ने दुनिया की ज़िन्दगी के सामान दिया, फिर वह रोजे कियामत (गिरफ्तार हो कर) हाजिर किए जाने वालों में से हुआ। (61)

और जिस दिन वह उन्हें पुकारेगा, कहेगा कहां है? मेरे शरीक जिन्हें तुम (मेरा शरीक) गुमान करते थे। (62) 

(फिर) कहेंगे वह जिन पर हुक्मे अज़ाब साबित हो गया कि ऐ हमारे रब! यह है वह जिन्हें हम ने बहकाया, हम ने उन्हें (वैसे ही) बहकाया जैसे हम (खुद) बहके थे। हम तेरी तरफ़ (तेरे हुजूर सब से) बेजारी करते हैं, वह हमारी बन्दगी न करते थे। (63) 

और कहा जाएगा तुम अपने शरीकों को पुकारो, सो वह उन्हें पुकारेंगे, तो वह उन्हें जवाब न । देंगे, और वह अज़ाब देखेंगे, काश वह हिदायत याफ्ता होते। (64) 

और जिस दिन वह उन्हें पुकारेगा तो फ़रमाएगा तुम ने पैगम्बरों को क्या जवाब दिया था? (65) 

पर उन को कोई बात न सूझेगी उस दिन, पर वह आपस में (भी) सवाल न कर सकंगे। (66) 

सो जिस ने तौबा की और वह ईमान लाया और उस ने अच्छे अमल किए, तो उम्मीद है कि वह कामयाबी पाने वालों में से हो| (67) 

और तुम्हारा रब पैदा करता है जो वह चाहता है और (जो) वह पसंद करता है, नहीं है उन के लिए (उन का कोई) इतियार, अल्लाह उस से पाक है और बरतर है उस से जो वह शरीक करते हैं। (68) 

और तुम्हारा रब जानता है जो उन के सीनों में छुपा है, और जो जाहिर करते हैं। (69) 

और वही है अल्लाह, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, उसी के लिए हैं तमाम तारीफें दुनिया में और आखिरत में, और उसी के लिए है फरमारवाई, और उसी की तरफ तुम लौट कर जाओगे। (70) 

आप (स) फ़रमा दें भला देखो तो अगर अल्लाह रोजे कियामत तक के लिए तुम पर हमेशा रात रखे तो अल्लाह के सिवा और कौन माबूद है? जो तुम्हारे लिए (दिन की) रोशनी ले आए, तो क्या तुम सुनते नहीं? (71) 

आप (स) फ़रमा दें भला तुम देखो तो अगर अल्लाह तुम पर रखे रोजे क़ियामत तक के लिए हमेशा दिन तो अल्लाह के सिवा और कौन माबूद है जो तुम्हारे लिए रात ले आए? कि तुम उस में आराम करो, तो क्या तुम्हें सूझता नहीं? (72) 

और उस ने अपनी रहमत से तुम्हारे लिए रात और दिन को बनाया ताकि उस (रात) में आराम करो और (दिन में) रोजी तलाश करो, और ताकि तुम (अल्लाह का) शुक्र करो| (73) 

और जिस दिन वह उन्हें पुकारेगा तो वह कहेगा कहां हैं वह? जिन को तुम मेरा शरीक गुमान करते थे। (74) 

और हम हर उम्मत में से एक गवाह निकाल कर लाएंगे, फिर हम कहेंगे अपनी दलील पेश करो, सो वह जान लेंगे कि सच्ची बात अल्लाह की है, और गुम हो जाएंगी (वह सब बातें) जो वह घड़ते थे। (75) 

बेशक कारून था मूसा (अ) की कौम से, सो उस ने उन पर जियादती की, और हम ने उस को इतने खजाने दिए थे कि उस की कुन्जियां एक जोर आवर जमाअत पर (भी) भारी होती थीं, जब उस को उस की कौम ने कहा, इतरा नहीं बेशक अल्लाह पसंद नहीं करता इतराने वालों को। (76) 

और जो तुझे अल्लाह ने दिया है उस से आखिरत का घर तलब कर (आखिरत की फ़िक्र कर) और अपना हिस्सा न भूल दुनिया से, और नेकी कर जैसे तेरे साथ अल्लाह ने नेकी की है, और तू फ़साद न चाह जमीन में, बेशक अल्लाह फसाद करने वालों को पसंद नहीं करता। (77) 

कहने लगा यह तो एक इल्म की वजह से मुझे दिया गया है जो मेरे पास है, क्या वह नहीं जानता? कि उस से क़ब्ल अल्लाह ने कितनी जमाअतों को हलाक कर दिया है, जो उस से जियादा सख्त थीं कुव्वत में, और ज़ियादा थी जमियत में, उन के गुनाहों की बाबत सवाल न किया जाएगा मुजिमों से| (78) 

फिर वह (कारून) अपनी कौम के सामने जेब ओ जीनत के साथ निकला तो उन लोगों ने कहा जो तालिब थे दुनिया की जिन्दगी के. जो कारून को दिया गया है, ऐ काश ऐसा हमारे पास (भी) होता, बेशक वह बड़ा नसीब वाला है। (79) 

और जिन लोगों को इल्म दिया गया था उन्हों ने कहा अफसोस है तुम पर! अल्लाह का सवाब (अजर) बेहतर है उस के लिए जो ईमान लाया और उस ने अच्छा अमल किया और वह सबर करने वालों के सिवा (किसी को) नसीब नहीं होता। (80)
 
फिर हम ने उस को और उस के घर को जमीन में धंसा दिया, सो उस के लिए कोई जमाअत न हुई जो अल्लाह के सिवा (अल्लाह से बचाने में) उस की मदद करती और न वह (खुद) हुआ बदला लेने वालों में से| (81)

और कल तक जो लोग उस के मुकाम की तमन्ना करते थे, सुबह के वक्त कहने लगे हाए शामत! अपने बन्दो में से अल्लाह जिस के लिए चाहे रिजक फ़राख कर देता है और (जिस के लिए चाहे) तंग कर देता है, अगर अल्लाह हम पर एहसान न करता तो अलबत्ता हमें (भी) धंसा देता, हाए शामत! काफ़िर फलाह (दो जहान की कामयाबी) नहीं पाते। (82) 

यह आखिरत का घर है, हम उन लोगों के लिए तैयार करते हैं जो नहीं चाहते ज़मीन (मुल्क) में बड़ाई और न फसाद, और नेक अन्जाम परहेजगारों के लिए है। (83) 

जो नेकी के साथ आया उस के लिए उस से बेहतर (सिला) है और जो बुराई के साथ आया, तो उन लोगों को जिन्हों ने बुरे अमल किए उस के सिवा बदला न मिलेगा जो वह करते थे। (84) 

बेशक जिस अल्लाह ने तुम पर कुरआन (पर अमल और तब्लीग) को लाज़िम किया है वह तुम्हें ज़रूर सब से अच्छी लौटने की जगह फेर लाएगा, आप (स) फ़रमा दें मेरा रब खूब जानता है कि कौन हिदायत के साथ आया और कौन खुली गुमराही में है। (85) 

और तुम न थे उम्मीद रखते कि तुम्हारी तरफ़ किताब उतारी जाएगी, मगर तुम्हारे रब की रहमत से (नुजूल हुआ), सो तुम हरगिज़ हरगिज़ न होना काफिरों के लिए मददगार| (86)

और वह तुम्हें हरगिज़ अल्लाह के अहकाम से न रोकें, उस के बाद जबकि नाज़िल किए गए तुम्हारी तरफ, और आप (स) अपने रब की तरफ़ बुलाएं, और हरगिज़ मुश्रिकों में से न होना| (87)

और अल्लाह के साथ न पुकारो कोई दूसरा माबूद, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, उस की ज़ात के सिवा हर चीज़ फ़ना होने वाली है, उसी का हुक्म है और उसी की तरफ़ तुम लौट कर जाओगे। (88)

***

28. HISTORY

(al-Qasas)

In the name of God, the Gracious, the Merciful.

1. Ta, Seen, Meem.

2. These are the Verses of the Clear Book.


3. We narrate to you from the history of Moses and Pharaoh—in truth—for people who believe.


4. Pharaoh exalted himself in the land, and divided its people into factions. He persecuted a group of them, slaughtering their sons, while sparing their daughters. He was truly a corrupter.


5. But We desired to favor those who were oppressed in the land, and to make them leaders, and to make them the inheritors.


6. And to establish them in the land; and to show Pharaoh, Hamaan, and their troops, the very thing they feared.


7. We inspired the mother of Moses: “Nurse him; then, when you fear for him, cast him into the river, and do not fear, nor grieve; We will return him to you, and make him one of the messengers.”


8. Pharaoh’s household picked him up, to be an opponent and a sorrow for them. Pharaoh, Hamaan, and their troops were sinners. 


9. Pharaoh’s wife said, “An eye's delight for me and for you. Do not kill him; perhaps he will be useful to us, or we may adopt him as a son.” But they did not foresee.


10. The heart of Moses’ mother became vacant. She was about to disclose him, had We not steadied her heart, that she may remain a believer.


11. She said to his sister, “Trail him.” So she watched him from afar, and they were unaware.


12. We forbade him breastfeeding at first. So she said, “Shall I tell you about a family that can raise him for you, and will look after him?”


13. Thus We returned him to his mother, that she may be comforted, and not grieve, and know that God’s promise is true. But most of them do not know.


14. And when he reached his maturity, and became established, We gave him wisdom and knowledge. Thus do We reward the virtuous.


15. Once he entered the city, unnoticed by its people. He found in it two men fighting—one of his own sect, and one from his enemies. The one of his sect solicited his assistance against the one from his enemies; so Moses punched him, and put an end to him. He said, “This is of Satan's doing; he is an enemy that openly misleads.”


16. He said, “My Lord, I have wronged myself, so forgive me.” He forgave him. He is the Forgiver, the Merciful.


17. He said, “My Lord, in as much as you have favored me, I will never be a supporter of the criminals.”


18. The next morning, he went about in the city, fearful and vigilant, when the man who had sought his assistance the day before was shouting out to him. Moses said to him, “You are clearly a troublemaker.”


19. As he was about to strike the one who was their enemy, he said, “O Moses, do you intend to kill me, as you killed someone yesterday? You only want to be a bully in the land, and do not want to be a peacemaker.”


20. A man came from the farthest part of the city running. He said, “O Moses, the authorities are considering killing you, so leave; I am giving you good advice.”


21. So he left, fearful and vigilant. He said, “My Lord, deliver me from the wrongdoing people.”


22. As he headed towards Median, he said, “Perhaps my Lord will guide me to the right way.”


23. And when he arrived at the waters of Median, he found there a crowd of people drawing water, and he noticed two women waiting on the side. He said, “What is the matter with you?” They said, “We cannot draw water until the shepherds depart, and our father is a very old man.”


24. So he drew water for them, and then withdrew to the shade, and said, “My Lord, I am in dire need of whatever good you might send down to me.” 


25. Then, one of the two women approached him, walking bashfully. She said, “My father is calling you, to reward you for drawing water for us.” And when he came to him, and told him the story, he said, “Do not fear, you have escaped from the wrongdoing people.”


26. One of the two women said, “Father, hire him; the best employee for you is the strong and trustworthy.”


27. He said, “I want to marry you to one of these two daughters of mine, provided you work for me for eight years. But if you complete ten, that is up to you. I do not intend to impose any hardship on you. You will find me, God willing, one of the righteous.”


28. He said, “Let this be an agreement between you and me. Whichever of the two terms I fulfill, there shall be no reprisal against me; and God is witness over what we say.”


29. When Moses had completed the term, and departed with his family, he noticed a fire by the side of the mount. He said to his family, “Stay here, I have glimpsed a fire. Perhaps I can bring you some information from there, or an ember from the fire, that you may warm yourselves.”


30. When he reached it, he was called from the right side of the valley, at the blessed spot, from the bush: “O Moses, it is I, God, the Lord of the Worlds.


31. Throw down your staff.” And when he saw it wiggling, as if it were possessed, he turned his back to flee, and did not look back. “O Moses, come forward, and do not fear, you are perfectly safe.


32. Put your hand inside your pocket, and it will come out white, without blemish. And press your arm to your side, against fear. These are two proofs from your Lord, to Pharaoh and his dignitaries. They are truly sinful people.”


33. He said, “My Lord, I have killed one of them, and I fear they will kill me.


34. And my brother Aaron, he is more eloquent than me, so send him with me, to help me, and to confirm my words, for I fear they will reject me.”


35. He said, “We will strengthen your arm with your brother, and We will give you authority, so they will not touch you. By virtue of Our signs, you and those who follow you will be the triumphant.”


36. But when Moses came to them with Our signs, clear and manifest, they said, “This is nothing but fabricated magic, and We never heard of this from our ancestors of old.”


37. Moses said, “My Lord is well aware of him who brings guidance from Him, and him who will have the sequel of the abode. The wrongdoers will not succeed.”


38. Pharaoh said, “O nobles, I know of no god for you other than me. So fire-up the bricks for me O Hamaan, and build me a tower, that I may ascend to the God of Moses, though I think he is a liar.” 


39. He and his troops acted arrogantly in the land, with no justification. They thought they would not be returned to Us.


40. So We seized him, and his troops, and We threw them into the sea. Observe, therefore, what was the end of the oppressors.


41. And We made them leaders calling to the Fire. And on Resurrection Day, they will not be saved.


42. And We pursued them in this world with a curse. And on Resurrection Day, they will be among the despised.


43. We gave Moses the Scripture after We had annihilated the previous generations; as an illumination for mankind, and guidance, and mercy, so that they may remember.


44. You were not on the Western Side when We decreed the command to Moses, nor were you among the witnesses.


45. But We established many generations, and time took its toll on them. Nor were you among the people of Median, reciting Our revelations to them. But We kept sending messengers.


46. Nor were you by the side of the Mount when We proclaimed. Rather, it was a mercy from your Lord, that you may warn people who received no warner before you, so that they may take heed.


47. Otherwise, if a calamity befell them as a result of what their hands have perpetrated, they would say, “Our Lord, if only You had sent us a messenger, we would have followed Your revelations, and been among the believers.”


48. But when the truth came to them from Us, they said, “If only he was given the like of what was given to Moses.” Did they not disbelieve in what was given to Moses in the past? They said, “Two works of magic backing one another.” And they said, “We are disbelieving in both.”


49. Say, “Then bring a scripture from God, more conductive to guidance than both, and I will follow it, if you are truthful.”


50. But if they fail to respond to you, know that they follow their fancies. And who is more lost than him who follows his fancy without guidance from God? God does not guide the unjust people.


51. We have delivered the Word to them, that they may remember.


52. Those to whom We gave the Scripture before it believe in it.


53. When it is recited to them, they say, “We have believed in it; it is the truth from our Lord; we were Muslims prior to it.”


54. These will be given their reward twice, because they persevered; and they counter evil with good; and from Our provisions to them, they give.


55. And when they hear vain talk, they avoid it, and say, “We have our deeds, and you have your deeds; peace be upon you; we do not desire the ignorant.” 


56. You cannot guide whom you love, but God guides whom He wills, and He knows best those who are guided.


57. And they say, “If we follow the guidance with you, we will be snatched from our land.” Did We not establish for them a Safe Sanctuary, to which are brought all kinds of fruits, as provision from Ourselves? But most of them do not know.


58. And how many a city did We destroy for turning unappreciative of its livelihood? Here are their homes, uninhabited after them, except for a few. And We became the inheritors.


59. Your Lord never destroys cities without first sending a messenger in their midst, reciting to them Our revelations. And We never destroy the cities, unless their people are wrongdoers.


60. Whatever thing you are given is but the material of this world, and its glitter. But what is with God is better, and longer lasting. Do you not comprehend?


61. Can someone to whom We have made a fine promise—which he will attain—be equal to someone to whom We have given enjoyments in this world, but who will be, on Resurrection Day, among the arraigned?


62. On the Day when He will call to them, and say, “Where are My associates whom you used to claim?”


63. Those against whom the sentence is justified will say, “Our Lord, these are they whom we misled. We misled them, as we were misled. We beg Your forgiveness; it was not us they used to worship.”


64. And it will be said, “Call on your partners.” And they will call on them, but they will not respond to them. And they will see the suffering. If only they were guided.


65. On the Day when He will call to them, and say, “What did you answer the Messengers?”


66. They will be blinded by the facts on that Day, and they will not question each other.


67. But he who repents, and believes, and does righteous deeds, may well be among the winners.


68. Your Lord creates whatever He wills, and He chooses. The choice is not theirs. Glory be to God, and exalted be He above the associations they make.


69. And your Lord knows what their hearts conceal, and what they reveal.


70. And He is God. There is no god but He. To Him belongs all praise in this life, and in the next. And His is the decision, and to Him you will be returned.


71. Say, “Have you considered? Had God made the night perpetual over you until the Day of Resurrection, which god other than God will bring you illumination? Do you not hear?”


72. Say, “Have you considered? Had God made the day perpetual over you until the Day of Resurrection, which god other than God will bring you night to rest in? Do you not see?”


73. It is out of His mercy that He made for you the night and the day, that you may rest in it, and seek some of His bounty; and that you may give thanks.


74. On the Day when He will call to them, and say, “Where are My associates which you used to claim?”


75. And We will draw out from every community a witness, and say, “Produce your evidence.” Then they will realize that the truth is God’s, and those they used to invent have forsaken them.


76. Quaroon belonged to the clan of Moses, but he oppressed them. We had given him treasures, the keys of which would weigh down a group of strong men. His people said to him, “Do not exult; God does not love the exultant.


77. But seek, with what God has given you, the Home of the Hereafter, and do not neglect your share of this world. And be charitable, as God has been charitable to you. And do not seek corruption in the land. God does not like the seekers of corruption.”


78. He said, “I was given all this on account of knowledge I possess.” Did he not know that God destroyed many generations before him, who were stronger than he, and possessed greater riches? But the guilty will not be asked about their sins.


79. And he went out before his people in his splendor. Those who desired the worldly life said, “If only we possessed the likes of what Quaroon was given. He is indeed very fortunate.”


80. But those who were given knowledge said, “Woe to you! The reward of God is better for those who believe and do righteous deeds.” Yet none attains it except the steadfast.


81. So We caused the earth to cave in on him and his mansion. He had no company to save him from God, and he could not defend himself.


82. Those who had wished they were in his position the day before were saying, “Indeed, it is God who spreads the bounty to whomever He wills of His servants, and restricts it. Had God not been gracious to us, He would have caved in on us. No wonder the ungrateful never prosper.”


83. That Home of the Hereafter—We assign it for those who seek no superiority on earth, nor corruption. And the outcome is for the cautious.


84. Whoever brings a virtue will receive better than it. But whoever brings evil— the evildoers will be rewarded only according to what they used to do.


85. He Who ordained the Quran for you will return you Home. Say, “My Lord knows best who comes with guidance, and who is in manifest error.”


86. You did not expect the Book to be transmitted to you, except as mercy from your Lord. Therefore, do not be a supporter of the disbelievers. 


87. And do not let them divert you from God’s revelations after they have been revealed to you. And pray to your Lord, and never be of the polytheists. 


88. And do not invoke with God any other god. There is no god but He. All things perish, except His presence. His is the judgment, and to Him you will be returned.   

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