Quran-E-Pak

सूरा-ताहा | Surah 20

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सूरा-ताहा

| मक्का कालीन | आयत 135 | 

सूरा-ताहा | Surah 20

अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहबान, रह करने वाला है (1) 

हम ने कुरआन तम पर इस लिए नाज़िल नहीं किया कि तम मुशक्क़त में पड़ जाओ। (2) 

मगर उस के लिए नसीहत है जो डरता है। (3) 

नाज़िल किया हुआ है (उस की तरफ़ से) जिस ने जमीन और ऊंचे आस्मान बनाए। (4) 

रहमान अर्श पर काइम है। (5) 

उसी के लिए है जो कुछ आस्मानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, और जो उन दोनों के दरमियान है, और जो जमीन के नीचे है। (6) 

और अगर तू पुकार कर कहे बात तो बेशक वह भेद जानता है और निहायत पोशीदा (बात को भी)। (7) 

अल्लाह, उस के सिवा कोई माबूद नहीं, उसी के लिए हैं सब अच्छे नाम| (8) 

और क्या तुम्हारे पास मूसा (अ) की खबर आई? (9)

जब उस ने आग देखी तो अपने घर वालों से कहा कि तम ठहरो, बेशक मैं ने देखी है आग, शायद मैं तुम्हारे पास उस से चिंगारी ले आऊँ, या आग पर रास्ते (का पता) पा लूँ। (10) 

 जब वह वहां आए, तो आवाज़ आई ऐ मूसा (अ)! (11) 

बेशक मैं ही तुम्हारा रब हूँ, सो अपनी जूतियां उतार लो, बेशक तम तुवा के पाक वादी में हो। (12) 

और मैं ने तुम्हें पसंद किया, पर जो वहि की जाए उस की तरफ़ कान लगा कर सुनो। (13) 

बेशक मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई माबूद नहीं, पर मेरी इबादत करो और काइम करो मेरी याद के लिए नमाज, (14) 

बेशक कियामत आने वाली है, मैं चाहता हूँ कि उसे पोशीदा रखू ताकि हर शख्स को बदला दिया जाए उस कोशिश का जो वह करे| (15) 

पर तुझे उस से वह न रोक दे जो उस पर ईमान नहीं रखता और अपनी खाहिश के पीछे पड़ा हुआ है, फिर तू हलाक हो जाए। (16)

और ऐ मूसा (अ) यह तेरे दाहने हात में क्या है? (17) 

उस ने कहा यह मेरा असा है, मैं इस पर टेक लगाता हूं, और इस से पत्ते झाड़ता है अपनी बकरियों पर, और इस में मेरे और भी कई फ़ाइदे हैं। (18) 

उस ने फ़रमाया ऐ मूसा (अ)! इसे (ज़मीन पर) डाल दे| (19) 

पर उस ने डाल दिया, तो नागाह वह दौड़ता हुआ सांप (बन गया)। (20) 

(अल्लाह ने) फ़रमाया उसे पकड़ ले, और न डर, हम जल्द उसे उस की पहली हालत पर लौटा देंगे, (21) 

अपना हाथ अपनी बग़ल में लगा ले, वह किसी ऐब के बगर सफ़ेद (चमकता हुआ) निकलेगा, (यह) दूसरी निशानी है। (22) 

ताकि हम तुझे दिखाएं अपनी बड़ी निशानियों में से| (23) 

तू फ़िरऔन की तरफ़ जा, बेशक वह सरशक हो गया है। (24) 

मूसा (अ) ने कहा, ऐ मेरे रव! मेरे लिए कुशादा कर दे मेरा सीना। (25)

और मेरे लिए मेरा काम आसान कर दे| (26) 

और मेरी ज़बान की गिरह खोल दे। (27) 

कि वह मेरी बात समझ लें| (28)

और बना दे मेरे लिए वज़ीर (मुआविन) मेरे खानदान से, (29) 

मेरा भाई हारून (अा (30) 

उस से मेरी कुव्वत (कमर) मजबूत कर दे| (31) 

और उसे शरीक कर दे मेरे काम में। (32) 

ताकि हम कस्रत से तेरी तसबीह करें, (33) 

और कसत से तुझे याद करें। (34) 

बेशक तू हमें खूब देखता है। (35) 

ल्लाह ने फरमाया, ऐ मूसा (अ)! जी तू ने मांगा तहकीक तुझे दे दिया गया। (36) 

और तहकीक हम नै तुझ पर एक बार और भी एहसान किया था। (37) 

जब हम ने तेरी वालिदा को इलहाम किया जो इलहाम करना था। (38) 

कि तू उसे सन्दूक में डाल, फिर सन्दूक दर्या में डाल दे, फिर डाल देगा दर्या उसे साहिल पर, मेरा और उस का दुश्मन उस को ले लेगा (दर्या से निकाल लेगा) और मैं ने डाल दी तुझ पर मुहब्बत अपनी तरफ़ से (मखलूक तुझ से मुहब्बत करे) ताकि तू पर्वरिश पाए मेरे सामने| (39) 

और (याद कर) जब तेरी बहन जा रही थी तो (आले फ़िरऔन से) कह रही थी कि क्या मैं तुम्हें (उस का पता) बताऊँ जो इस की पर्वरिश करे? पर हम ने तुझे तेरी माँ की तरफ़ लौटा दिया, ताकि उस की आँखें ठंडी हों, और वह गम न करे, और तू ने एक शख्स को क़त्ल कर दिया तो हम ने तुझे नजात दी गम से, और तुझे कई आज़माइशों से आज़माया, फिर कई साल मदयन वालों में ठहरा रहा, फिर तू आया वक्ते मुकर्रर पर ऐ मूसा (अ) (मुताबिक़ तक़दीरे इलाही)। (40)

और मैं ने तुझे खास अपने लिए बनाया। (41) 

तुम और तुम्हारा भाई दोनों जाओ मेरी निशानियों के साथ, और सुस्ती न करना मेरी याद में। (42) तुम दोनों फ़िरऔन के पास जाओ, बेशक वह सरकश हो गया है। (43) 

तुम उस को नर्म बात कहो शायद वह नसीहत पकड़ ले या डर जाए। (44) 

वह बोले, ऐ हमारे रब! बेशक हम डरते हैं कि (कहीं) वह हम पर ज़ियादती (न) करे या हद से (न) बढ़े! (45) 

उस ने फ़रमाया तुम डरो नहीं, बेशक मैं तुम्हारे साथ हूँ, मैं सुनता और देखता हूँ। (46) 

 उस के पास जाओ और कहो बेशक हम दोनों भेजे हुए हैं तेरे रख के, पर बनी इस्राईल को हमारे साथ भेज दे और उन्हें अज़ाब न दे, हम तेरे पास तेरे रब की निशानी के साथ आए हैं, और सलाम हो उस पर जिस ने हिदायत की पैरवी की। (47) 

बेशक हमारी तरफ़ वहि की गई है कि अज़ाब है उस पर जिस ने झुटलाया और मुंह फेरा| (48) 

उस ने कहा ऐ मूसा (अ)! पर तुम्हारा रब कौन है? (49) 

मूसा (अ) ने कहा हमारा रब वह है जिस ने हर चीज़ को उस की शक्ल ओ सूरत अता की फिर उस की रहनुमाई की। (50) 

उस ने कहा फिर पहली जमाअतों का क्या हाल है? (51) 

मूसा (अ) ने कहा उस का इल्म मेरे रब के पास किताब में है, मेरा रब न गलती करता है, और न भूलता है। (52) 

वह जिस ने ज़मीन को तुम्हारे लिए बिछौना बनाया, और तुम्हारे लिए चलाई उस में राहें, और आस्मान से पानी उतारा, फिर हम ने उस से सबजी की मुखतलिफ़ अक्साम निकालीं। (53) 

तुम खाओ और अपने मवेशी चराओ, बेशक उस में अम्ल वालों के लिए निशानियां हैं। (54) 

उस (जमीन) से हम ने तुम्हें पैदा किया और उसी में हम तुम्हें लौटा देंगे, और उसी से हम तुम्हें दूसरी बार निकालेंगे। (55) 

और हम ने उसे (फ़िरऔन) को अपनी तमाम निशानियां दिखाई तो उस ने झुटलाया और इन्कार किया। (56) 

उस ने कहा ऐ मूसा (अ)! क्या तू हमारे पास आया है कि तू हमें अपने जादू के जरीए हमारी जमीन (मुल्क से) निकाल दे| (57) 

 हम तेरे मुकाबल ज़रूर लाएंगे उस जैसा एक जादू, पर हमारे और अपने दरमियान एक वक्त मुकर्रर कर ले कि न हम उस के खिलाफ करें और न तु, एक हमवार मैदान (में मुकाबला होगा)। (58) 

मूसा (अ) ने कहा तुम्हारा वादा मेले का दिन है और यह कि लोग दिन चढ़े जमा किए जाएं। (59) 

फिर लौट गया फ़िरऔन, सो उस ने अपना दाओ (जादू का सामान) जमा किया, फिर आया। (60) 

मूसा (अ) ने उन से कहा तुम पर खराबी हो, अल्लाह पर न घड़ो झूट कि वह तुम्हें अज़ाब से हलाक करदे, और जिस ने झूट बान्धा वह नामुराद हुआ। (61) 

तो वह बाहम अपने काम में झगड़ने लगे और उन्हों ने छुप कर मशवरा किया। (62) 

वह कहने लगे तहकीक़ यह दोनों जादूगर है, यह चाहते हैं कि तुम्हें तुम्हारी सर जमीन से निकाल दें अपने जादू के जरीए, और तुम्हारा अच्छा तरीका ले जाएं (नाबूद कर दें)। (63) 

लिहाजा अपने दाओ इकटठे कर लो, फिर सफ बान्ध कर आओ, और तहकीक कामयाब होगा वही जो आज गालिब रहा। (64) 

वह बोले ऐ मूसा (अ)! या तो (पहले अपना दाओ) डाल या हम पहले डालें। (65) 

उस ने कहा (नहीं) बलकि तुम डालो, तो नागहां उन की रस्सियां और उन की लाठियां उस (मूसा अ) के खयाल में आईं (ऐसे नमूदार हुई) उन के जादू से कि गोया वह दौड़ रही हैं। (66) 

तो मूसा (अ) ने अपने दिल में कुछ खौफ़ महसूस किया। (67) 

हम ने कहा तुम डरो नहीं, बेशक तुम ही गालिब रहोगे| (68) 

और जो तुम्हारे दाएं हाथ में है डालो वह निगल जाएगा जो कुछ उन्हों ने बनाया है, बेशक (जो कुछ) उन्हों ने बनाया है वह जादूगर का फ़रेब है, और जादूगर किसी शान से आए वह कामयाब नहीं होता। (69) 

 जादूगर सिजदे में डाल दिए गए (गिर पड़े) वह बोले हम हारून (अ) और मूसा (अ) के रब पर ईमान लाए| (70) 

फ़िरऔन ने कहा तुम उस पर ईमान ले आए (इस से) पहले कि मैं तुम्हें इजाज़त दूं, बेशक वह (मूसा अ) तुम्हारा बड़ा है जिस ने तुम्हें जादू सिखाया है, पर में जरूर काट डालूँगा तुम्हारे हाथ पाऊँ (जानिब) ख़िलाफ़ से (एक तरफ़ का हाथ दूसरी तरफ़ का पाऊँ) और मैं ज़रूर तुम्हें खजूर के तनों पर सूली दूंगा, और तुम खूब जान लोगे कि हम दोनों में से किस का अजाब जियादा सख्त और देर पा है। (71) 

उन्हों ने कहा हम तुझे हरगिज़ तरजीह न देंगे उन वाजेह दलाइल से जो हमारे पास आए हैं और उस पर जिस ने हमें पैदा किया है, पर तू कर गुज़र जो तू करने वाला है, उस के सिवा नहीं कि तू (सिर्फ) इस दुनिया की ज़िन्दगी में करेगा। (72) 

बेशक हम अपने रब पर ईमान । लाए कि वह हमारी खताएं बखशदे और उस पर जो तू ने हमें जादू के लिए मजबूर किया, और अल्लाह बेहतर है और हमेशा बाकी रहने वाला है। (73) 

बेशक वह, जो अपने रब के सामने आया मुहिम बन कर तो बेशक उस के लिए जहन्नम है, न वह उस में मरेगा और न जिएगा। (74) 

और जो उस के पास मोमिन बन कर आया और उस ने अच्छे अमल किए, पर यही लोग हैं जिन के लिए दरजे बुलन्द हैं। (75) 

हमेशा रहने वाले बागात, जारी हैं उन के नीचे नहरें, उन में हमेशा रहेंगे, और यह जज़ा है (उस की) जो पाक हुआ। (76) 

और तहकीक़ हम ने वहि की मूसा (अ) को कि रातों रात मेरे बन्दों को निकाल) ले जा, उन के लिए दर्या में (असा मार कर) खश्क रास्ता बना लेना, न तुझे पकड़ने का खौफ़ होगा और न (गर्क होने का डर होगा। (77) 

फिर फिरऔन ने अपने लशकर के साथ उन का पीछा किया तो उन्हें दर्या (की मौजों) ने ढांप लिया, जैसा कि ढांप लिया (बिलकुल गर्क कर दिया)। (78) 

और फ़िरऔन ने अपनी कौम को गुमराह किया और हिदायत न दी। (79) 

ऐ बनी इस्राईल (औलादे याकूब)! तहक़ीक़ हम ने तुम्हारे दुश्मन से तुम्हें नजात दी और कोहे तूर के दाएं जानिब तुम से (तौरेत अता करने का वादा किया और हम ने तुम पर उतारा “मन्न" और “सलवा" (80) 

जो हम ने तुम्हें दिया उस में से पाकीज़ा चीजे खाओ, और उस में सरकशी न करो कि तुम पर उतरे मेरा गजब, और जिस पर मेरा गजब उतरा वह नीस्त ओ नाबूद हुआ। (81) 

और बेशक मैं बड़ा बख्शने वाला हूँ उस को जिस ने तौबा की, और वह ईमान लाया और उस ने अमल किया नेक, फिर हिदायत पर रहा। (82)

और ऐ मुसा (! और क्या चीज़ तुझे अपनी कौम से जलद लाई (क्यों जल्दी की)? (83) 

उस ने कहा वह मेरे पीछे (आ ही रहे) हैं, मैं ने तेरी तरफ़ (आने में) जल्दी की ताकि तू राजी हो। (84) 

उस ने कहा पर हम ने तहकीक तेरी कौम को आज़माइश में डाला, और उन्हें सामरी ने गुमराह किया। (85) 

 मूसा (अ) अपनी कौम की तरफ़ लौटे, गुस्से में भरे हुए, अफ़सोस करते हुए, कहा ऐ मेरी कौम! क्या तुम से तुम्हारे रब ने अच्छा वादा नहीं किया था? क्या तवील हो गई तुम पर (मेरी जुदाई की) मुद्दत? या तुम ने चाहा कि तुम पर तुम्हारे रब का गज़ब उतरे? फिर तुम ने खिलाफ़ किया मेरे वादे के (वादा खिलाफ़ी की)। (86) 

वह बोले हम ने अपने इखतियार से तुम्हारे वादे के खिलाफ़ नहीं किया, बल्कि हम पर बोझ लादा गया कौम के जेवर का, तो हम ने उसे (आग में) डाल दिया, फिर उसी तरह सामरी ने डाला। (87) 

फिर उस ने उन के लिए एक बछड़ा निकाला (बनाया), एक मूर्ति जिस में गाय की आवाज़ निकलती थी, फिर उन्हों ने कहा यह तुम्हारा माबूद है, और मूसा (अ) का माबूद है, वह (मूसा अ) तो भूल गया है। (88) 

भला क्या वह नहीं देखते? कि वह (बछड़ा) उन की तरफ़ बात नहीं फेरता (उन को जवाब नहीं देता) न उन के नुकसान का इखतियार रखता है और न नफा का| (89) 

और तहकीक़ उन से हारून (अ) ने उस से पहले कहा था कि ऐ मेरी कौम! इस के सिवा नहीं कि तुम इस से आज़माए गए हो और बेशक तुम्हारा रख रहमान है, सो मेरी पैरवी करो और मेरी बात मानो। (90) 

उन्हों ने कहा हम हरगिज़ उस से जुदा न होंगे जमे हुए (बैठे रहेंगे) यहां तक कि मूसा (अ) हमारी तरफ़ लौटे। (91) 

उस (मूसा अ) ने कहा ऐ हारून (अ)! तुझे किस चीज़ ने रोका जब तू ने देखा कि वह गुमराह हो गए हैं। (92) 

कि तू न मेरी पैरवी करे? तो क्या तू ने नाफरमानी की मेरे हुक्म की? (93) 

उस ने कहा ऐ मेरे माँ जाए! मुझे दाढ़ी से और न सर (के बालों से पकड़ें, बेशक मैं डरा कि तुम । कहोगे कि तू ने फोट डाल दिया बनी इस्राईल के दरमियान, और मेरी बात का ख़याल न रखा। (94) 

फिर मूसा अ ने सामरी से) कहा ऐ सामरी! तेरा क्या हाल है? (95) 

वह बोला मैं ने वह देखा जिस को उन्हों ने नहीं देखा, पर मैं ने रसूल के नक्शे कदम से एक मुट्ठी भर ली तो मैं ने वह (बछड़े के कालिब में) डाल दी और इसी तरह मेरे नफस ने मुझे फुसलाया। (96)

मूसा (अ) ने कहा पर तू जा, बेशक तेरे लिए जिन्दगी में (यह सज़ा) है कि तू कहता फिरेः न छूना मुझे, और बेशक तेरे लिए एक वक्ते मुकर्रर है, हरगिज़ तुझ से खिलाफ़ न होगा (न टलेगा), और अपने माबूद की तरफ़ देख जिस पर तू (बैठा) रहता था जमा हुआ, हम उसे अलबत्ता जला देंगे फिर इस (की राख) उड़ा कर दर्या में ज़रूर बिखेर देंगें। (97) 

इस के सिवा नहीं कि तुम्हारा माबूद अल्लाह है, वह जिस के सिवा कोई माबूद नहीं, उस का इल्म हर शै पर मुहीत है। (98) 

उसी तरह हम तुम से (वह) अहवाल बयान करते हैं जो गुजर चुके, और तहकीक़ हम ने तुम्हें अपने पास से किताबे नसीहत (कुरआन) दिया। (99) 

जिस ने उस से मुंह फेरा वह बेशक लादेगा कियामत के दिन भारी बोझ (100) 

वह उस में हमेशा रहेंगे, और बुरा है उन के लिए कियामत के दिन का बोझ | (101) 

जिस दिन सूर में फूंक मारी जाएगी, और हम मुजीमों को इकटठा करंगें उस दिन (उन की) आँखें नीली (बे नूर होंगी)। (102) 

आपस में आहिस्ता आहिस्ता कहेंगे तुम (दुनिया में सिर्फ दस दिन रहे हो। (103) 

वह जो कहते हैं हम खूब जानते हैं जब उन का सब से अच्छी राह वाला (होशमन्द) कहेगा तुम सिर्फ एक दिन रहे हो। (104) 

और वह आप (स) से पहाड़ो के बारे में दर्याफ़त करते हैं, तो आप (स) कह दें मेरा रब उन्हें उड़ा कर बिखेर देगा। (105) 

फिर उसे (जमीन को) एक हमवार मैदान कर छोड़ेगा। (106)

और तु न देखेगा उस में कोई कजी (नाहमवारी) और न कोई बुलन्दी। (107) 

उस दिन सब पीछे चलेंगे एक पुकारने वाले के, उस के लिए कोई कजी न होगी और अल्लाह के सामने आवाजें पस्त हो जाएंगी, बस तू सिर्फ पस्त आवाज़ सुनेगा। (108) 

उस दिन कोई शफाअत नफा न देगी मगर जिस को अल्लाह इजाज़त दे, और उस की बात पसंद करे| (109) 

वह जानता है जो कुछ उन के आगे और उन के पीछे है, और वह (अपने इल्म में) उस का अहाता नहीं कर सकते। (110) 

और चेहरे झुक जाएंगे “हैय ओ क़य्यूम” (जिन्दा काइम) के सामने, और नामुराद हुआ वह जिस ने जुल्म का बोझ उठाया। (111) 

और जो कोई नेकी करे, बशर्त यह कि वह मोमिन हो तो न उसे किसी जुल्म का खौफ़ होगा और न किसी नुकसान का। (112) 

और उसी तरह हम ने उस पर कुरआन नाज़िल किया अरबी में और हम ने उस में तरह तरह से डरावे बयान किए ताकि वह परहेज़गार हो जाएं या वह उन के लिए कोई नसीहत पैदा कर दे| (113) 

सो अल्लाह बुलन्द ओ बरतर है सच्चा बादशाह, और तुम कुरआन (पढ़ने) में जल्दी न करो, इस से कब्ल के तुम्हारी तरफ़ पूरी की जाए उस की वहि, और कहिए ऐ मेरे रव! मुझे और जियादा इल्म दे। (114) 

और हम ने उस से कब्ल आदम (अ) की तरफ़ हुक्म भेजा तो वह भूल गया और हम ने उस में पुख्ता इरादा न पाया। (115) 

और याद करो जब हम ने फ़रिश्तों से कहा तुम आदम (अ) को सिजदा करो तो सब ने सिजदा किया सिवाए इब्लीस के, उस ने इन्कार किया। (116) 

 हम ने कहा ऐ आदम (अ)! बेशक यह तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का दुश्मन है। सो तुम्हें निकलवा न दे जन्नत से, फिर तुम तकलीफ़ में पड़ जाओ। (117) 

बेशक तुम्हारे लिए (जन्नत में) यह है कि इस में न भूके रहो, न नंगे| (118) 

और यह कि तुम न प्यासे रहोगे और न धूप में तपोगे। (119) 

फिर शैतान ने उस के दिल में वस्वसा डाला, उस ने कहा ऐ आदम (अ)! क्या मैं तेरी रहनुमाई करूं हमेशगी के दरख्त पर? और वह बादशाहत जो जवाल पज़ीर न हो? (120) 

 उन दोनों ने उसे खा लिया तो उन पर उन की शर्मगाहें जाहिर हो गईं, और अपने (जिस्म के) ऊपर जन्नत के पत्तों से ढांपने लगे, और आदम (अ) ने अपने रब की नाफरमानी की तो वह बहक गया। (121) 

फिर उस को चुन लिया उस के रब ने, फिर उस पर (रहमत से) तवज्जुह फ़रमाई (तौबा कुबूल की) और उसे राह दिखाई। (122) 

फ़रमाया तुम दोनों यहां से उतर जाओ, तुम्हारी (औलाद में से) बाज़ बाज़ के दुश्मन होंगे, पर अगर (जब भी) मेरी तरफ़ से तुम्हारे पास मेरी हिदायत आए तो जिस ने मेरी हिदायत की पैरवी की वह न गुमराह होगा और न बदबख्त होगा। (123)

और जिस ने मेरे जिक्र (नसीहत) से मुँह मोड़ा तो बेशक उस की मईशत (गुज़रान) तंग होगी और हम उसे उठाएंगे कियामत के दिन अन्धा। (124) 

वह कहेगा, ऐ मेरे रब! तू ने मुझे अन्धा क्यों उठाया? मैं तो (दुनिया में) बीना (देखता) था। (125) 

वह फ़रमाएगा इसी तरह तेरे पास हमारी आयात आई तो तू ने उन्हें भुलाया, और इसी तरह आज हम तुझे भुला देंगे। (126)

और इसी तरह हम (उस को) बदला देते हैं जो हद से निकल जाए और अपने रब की आयतों पर ईमान न लाए, और अलबत्ता आखिरत का अज़ाब शदीद तरीन है और ज़ियादा देर तक रहने वाला है। (127) 

क्या (उस हक़ीक़त ने भी) उन्हें हिदायत न दी कि उन से कल हम ने कितनी ही जमाअतें हलाक कर दी, वह चलते फिरते हैं उन के मसाकिन में, अलबत्ता बेशक उस में अक्ल वालों के लिए निशानियां हैं। (128) 

और अगर तुम्हारे रब की (तरफ़) से एक बात (तै) न हो चुकी होती और मीआद मुकर्रर (न होती) तो अजाब ज़रूर (नाज़िल) हो जाता। (129) 

 वह जो कहते हैं उस पर सब करें, तारीफ़ के साथ अपने रब की तस्बीह करें, (पाकीज़गी) बयान करें तुलूअ-ए-आफ़ताब से पहले, और गुरुबे आफ्ताब से पहले, और कुछ रात की घड़ियों में, पर उस की तस्बीह करें, और किनारे दिन के (दोपहर जुहर के वक्त) ताकि तुम खुश हो जाओ। (130) 

और अपनी आँखें (उन चीजों की) तरफ़ न फैलाना जो हम ने बरतने को दी हैं उन के जोड़ों को, दुनिया की जिन्दगी की आराइश ओ जेबाइश (बना कर) ताकि हम उस में उन्हें आजमाएं, और तेरे रब का अतिया बेहतर है और सब से ज़ियादा तादेर रहने वाला है। (131)

और तुम अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म दो, और उस पर काइम रहो, हम तुझ से नहीं मांगते रिजक (बल्कि) हम तुझे रिजक देते हैं और अन्जाम (बखैर) अहले तकवा के लिए है। (132)

और वह कहते हैं हमारे पास कोई निशानी क्यों नहीं लाए अपने रबकी तरफ़ से, क्या उन के पास (वह) वाजेह निशानी नहीं आई जो पहले सहीफ़ों में है। (133)

और अगर हम उन्हें हलाक कर देते (रसूलों के आने से कब्ल किसी अजाब से तो वह कहते ऐ हमारे रब! तू ने हमारी तरफ़ कोई रसूल क्यों न भेजा? तो हम इस से कब्ल कि जलील और रुस्वा हों हम तेरे । अहकाम की पैरवी करते। (134) 

आप (स) कह दें, सब मुन्तज़िर है, पर तुम (अभी) इन्तिज़ार करो, सो अनक़रीब तुम जान लोगे, कौन है सीधे रास्ते वाले और कौन है जिस ने हिदायत पाई। (135)

***

20. TA-HA

(Ta-Ha)
In the name of God, the Gracious, the Merciful.

 1. Ta, Ha.


2. We did not reveal the Quran to you to make you suffer.


3. But only as a reminder for him who fears.


4. A revelation from He who created the earth and the high heavens.


5. The Most Merciful; on the Throne He settled.


6. To Him belongs everything in the heavens and the earth, and everything between them, and everything beneath the soil.


7. If you speak aloud—He knows the secret, and the most hidden.


8. God, there is no god but He, His are the Most Beautiful Names.


9. Has the story of Moses reached you?


10. When he saw a fire, he said to his family, “Stay; I have noticed a fire; Perhaps I can bring you a torch therefrom, or find some guidance by the fire.”


11. Then, when he reached it, he was called, “O Moses.


12. I—I am your Lord. Take off your shoes. You are in the sacred valley of Tuwa.


13. I have chosen you, so listen to what is revealed.


14. I—I am God. There is no God but I. So serve Me, and practice the prayer for My remembrance.


15. The Hour is coming—but I keep it almost hidden—so that each soul will be paid for what it endeavors.


16. And do not let him who denies it and follows his desire turn you away from it, lest you fall.


17. And what is that in your right-hand, O Moses?”


18. He said, “This is my staff. I lean on it, and herd my sheep with it, and I have other uses for it.”


19. He said, “Throw it, O Moses.”


20. So he threw it—thereupon it became a moving serpent.


21. He said, “Take hold of it, and do not fear. We will restore it to its original condition.


22. And press your hand to your side; it will come out white, without a blemish— another sign.


23. That We may show you some of Our greatest signs.


24. Go to Pharaoh; He has transgressed.”


25. He said, “My Lord, put my heart at peace for me.


26. And ease my task for me.


27. And untie the knot from my tongue.


28. So they can understand my speech.


29. And appoint an assistant for me, from my family.


30. Aaron, my brother.


31. Strengthen me with him.


32. And have him share in my mission.


33. That we may glorify You much.


34. And remember You much.


35. You are always watching over us.”


36. He said, “You are granted your request, O Moses.


37. We had favored you another time.


38. When We inspired your mother with the inspiration.


39. `Put him in the chest; then cast him into the river. The river will wash him to shore, where an enemy of Mine and an enemy of his will pick him up. And I have bestowed upon you love from Me, so that you may be reared before My eye.


40. When your sister walked along, and said, ‘Shall I tell you about someone who will take care of him?' So We returned you to your mother, that she may be comforted, and not sorrow. And you killed a person, but We saved you from stress; and We tested you thoroughly. And you stayed years among the people of Median. Then you came back, as ordained, O Moses.


41. And I made you for Myself.


42. Go, you and your brother, with My signs, and do not neglect My remembrance.


43. Go to Pharaoh. He has tyrannized.


44. But speak to him nicely. Perhaps he will remember, or have some fear.”


45. They said, “Lord, we fear he may persecute us, or become violent.”


46. He said, “Do not fear, I am with you, I hear and I see.


47. Approach him and say, `We are the messengers of your Lord; so let the Children of Israel go with us, and do not torment them. We bring you a sign from your Lord, and peace be upon him who follows guidance.


48. It was revealed to us that the punishment falls upon him who disbelieves and turns away.'“


49. He said, “Who is your Lord, O Moses.”


50. He said, “Our Lord is He who gave everything its existence, then guided it.”


51. He said, “What about the first generations?”


52. He said, “Knowledge thereof is with my Lord, in a Book. My Lord never errs, nor does He forget.”


53. He who made the earth a habitat for you; and traced in it routes for you; and sent down water from the sky, with which We produce pairs of diverse plants.


54. Eat and pasture your livestock. In that are signs for those with understanding.


55. From it We created you, and into it We will return you, and from it We will bring you out another time.


56. We showed him Our signs, all of them, but he denied and refused.


57. He said, “Did you come to us to drive us out of our land with your magic, O Moses?


58. We will produce for you magic like it; so make an appointment between us and you, which we will not miss—neither us, nor you—in a central place.”


59. He said, “Your appointment is the day of the festival, so let the people be gathered together at mid-morning.”


60. Pharaoh turned away, put together his plan, and then came back.


61. Moses said to them, “Woe to you. Do not fabricate lies against God, or He will destroy you with a punishment. He who invents lies will fail.”


62. They disagreed among themselves over their affair, and conferred secretly.


63. They said, “These two are magicians who want to drive you out of your land with their magic, and to abolish your exemplary way of life.


64. So settle your plan, and come as one front. Today, whoever gains the upper hand will succeed.”


65. They said, “O Moses, either you throw, or we will be the first to throw.”


66. He said, “You throw.” And suddenly, their ropes and sticks appeared to him, because of their magic, to be crawling swiftly.


67. So Moses felt apprehensive within himself.


68. We said, “Do not be afraid, you are the uppermost.


69. Now throw down what is in your right hand—it will swallow what they have crafted. What they have crafted is only a magician’s trickery. But the magician will not succeed, no matter what he does.”


70. And the magicians fell down prostrate. They said, “We have believed in the Lord of Aaron and Moses.”


71. He said, “Did you believe in him before I have given you permission? He must be your chief, who has taught you magic. I will cut off your hands and your feet on alternate sides, and I will crucify you on the trunks of the palm-trees. Then you will know which of us is more severe in punishment, and more lasting.”


72. They said, “We will not prefer you to the proofs that have come to us, and Him who created us. So issue whatever judgment you wish to issue. You can only rule in this lowly life.


73. We have believed in our Lord, so that He may forgive us our sins, and the magic you have compelled us to practice. God is Better, and more Lasting.”


74. Whoever comes to his Lord guilty, for him is Hell, where he neither dies nor lives.


75. But whoever comes to Him a believer, having worked righteousness—these will have the highest ranks.


76. The Gardens of Perpetuity, beneath which rivers flow, dwelling therein forever. That is the reward for him who purifies himself.


77. And We inspired Moses: “Travel by night with My servants, and strike for them a dry path across the sea, not fearing being overtaken, nor worrying.”


78. Pharaoh pursued them with his troops, but the sea overwhelmed them, and completely engulfed them.


79. Pharaoh misled his people, and did not guide them.


80. O Children of Israel! We have delivered you from your enemy, and promised you by the right side of the Mount, and sent down to you manna and quails.


81. Eat of the good things We have provided for you, but do not be excessive therein, lest My wrath descends upon you. He, upon whom My wrath descends, has fallen.


82. And I am Forgiving towards him who repents, believes, acts righteously, and then remains guided.


83. “And what made you rush ahead of your people, O Moses?”


84. He said, “They are following in my footsteps; and I hurried on to You, my Lord, that you may be pleased.”


85. He said, “We have tested your people in your absence, and the Samarian misled them.”


86. So Moses returned to his people, angry and disappointed. He said, “O my people, did your Lord not promise you a good promise? Was the time too long for you? Or did you want wrath from your Lord to descend upon you, so you broke your promise to me?”


87. They said, “We did not break our promise to you by our choice, but we were made to carry loads of the people’s ornaments, and we cast them in. That was what the Samarian suggested.”


88. So he produced for them a calf—a mere body which lowed. And they said, “This is your god, and the god of Moses, but he has forgotten.”


89. Did they not see that it cannot return a word to them, and has no power to harm them or benefit them?


90. Aaron had said to them before, “O my people, you are being tested by this. And your Lord is the Merciful, so follow me, and obey my command.”


91. They said, “We will not give up our devotion to it, until Moses returns to us.”


92. He said, “O Aaron, what prevented you, when you saw them going astray.


93. From following me? Did you disobey my command?”


94. He said, “Son of my mother, do not seize me by my beard or my head. I feared you would say, `You have caused division among the Children of Israel, and did not regard my word.'“


95. He said, “What do you have to say, O Samarian?”


96. He said, “I saw what they did not see, so I grasped a handful from the Messenger’s traces, and I flung it away. Thus my soul prompted me.”


97. He said, “Begone! Your lot in this life is to say, ‘No contact.’ And you have an appointment that you will not miss. Now look at your god that you remained devoted to—we will burn it up, and then blow it away into the sea, as powder.”


98. Surely your god is God, the One besides whom there is no other god. He comprehends everything in knowledge.


99. Thus We narrate to you reports of times gone by; and We have given you a message from Our Presence.


100. Whoever turns away from it will carry on the Day of Resurrection a burden.


101. Abiding therein forever. And wretched is their burden on the Day of Resurrection.


102. On the Day when the Trumpet is blown—We will gather the sinners on that Day, blue.


103. Murmuring among themselves: “You have lingered only for ten.”


104. We are fully aware of what they say, when the most exemplary of them in conduct will say, “You have lingered only a day.”


105. And they ask you about the mountains. Say, “My Lord will crumble them utterly.”


106. And leave them desolate waste.


107. You will see in them neither crookedness, nor deviation.”


108. On that Day, they will follow the caller, without any deviation. Voices will be hushed before the Merciful, and you will hear nothing but murmur.


109. On that Day, intercession will not avail, except for him permitted by the Merciful, and whose words He has approved.


110. He knows what is before them and what is behind them, and they cannot comprehend Him in their knowledge.


111. Faces will be humbled before the Living, the Eternal. Whoever carries injustice will despair.


112. But whoever has done righteous deeds, while being a believer—will fear neither injustice, nor grievance.


113. Thus We have revealed it an Arabic Quran, and We have diversified the warnings in it, that perhaps they would become righteous, or it may produce a lesson for them.


114. Exalted is God, the True King. Do not be hasty with the Quran before its inspiration to you is concluded, and say, “My Lord, increase me in knowledge.”


115. And We covenanted with Adam before, but he forgot, and We found in him no resolve.


116. And when We said to the angels, “Bow down to Adam.” They bowed down, except for Satan. He refused.


117. We said, “O Adam, this is an enemy to you and to your wife. So do not let him make you leave the Garden, for then you will suffer.


118. In it you will never go hungry, nor be naked.


119. Nor will you be thirsty in it, nor will you swelter.”


120. But Satan whispered to him. He said, “O Adam, shall I show you the Tree of Immortality, and a kingdom that never decays?”


121. And so they ate from it; whereupon their bodies became visible to them, and they started covering themselves with the leaves of the Garden. Thus Adam disobeyed his Lord, and fell.


122. But then his Lord recalled him, and pardoned him, and guided him.


123. He said, “Go down from it, altogether; some of you enemies of some others. But whenever guidance comes to you from Me, whoever follows My guidance, will not go astray, nor suffer.


124. But whoever turns away from My Reminder, for him is a confined life. And We will raise him on the Day of Resurrection blind.”


125. He will say, “My Lord, why did You raise me blind, though I was seeing?”


126. He will say, “Just as Our revelations came to you, and you forgot them, today you will be forgotten.”


127. Thus We recompense him who transgresses and does not believe in the revelations of his Lord. The punishment of the Hereafter is more severe, and more lasting.


128. Is it not instructive to them, how many generations before them We destroyed, in whose settlements they walk? Surely in that are signs for people of understanding.


129. Were it not for a word that issued from your Lord, the inevitable would have happened, but there is an appointed term.


130. So bear patiently what they say, and celebrate the praises of your Lord before the rising of the sun, and before its setting. And during the hours of the night glorify Him, and at the borders of the day, that you may be satisfied.


131. And do not extend your glance towards what We have given some classes of them to enjoy—the splendor of the life of this world—that We may test them thereby. Your Lord’s provision is better and more lasting.


132. And exhort your people to pray, and patiently adhere to it. We ask of you no sustenance, but it is We who sustain you. The good ending is that for righteousness.


133. And they say, “Why does he not bring us a miracle from his Lord?” Were they not given enough miracles in the former scriptures?


134. Had We destroyed them with a punishment before him, they would have said, “Our Lord, if only You had sent us a messenger, we would have followed Your revelations before we were humiliated and disgraced.”


135. Say, “Everybody is waiting, so wait. You will know who the people of the straight path are, and who is rightly guided. 


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